Pages

Sunday, December 2, 2012

नए साल की पहली सुबह की रोमानियत


साल की आखिरी शाम को विदा करने और नए साल की पहली सुबह का स्वागत करने का ख्याल कुछ अलग ही तरीके से रोमांचित करता है। छोडि़ए होटलों की पार्टीबाजी और नाच-गाना और इस बार अपने हमसफर के साथ जाइए ऐसी जगह, जहां ढलते या उगते सूरज की लालिमा आपको भीतर तक आह्लादित कर देती है। सुझा रहे हैं उपेंद्र स्वामी

Sunrise from Tiger Hill at Darjeeling
हिमालय की गोद में: यूं तो हिमालय में किसी भी जगह से बर्फीले पहाड़ों के पीछे से या घाटी में फैले बादलों में से उगते सूरज को देखना बेहद रोमांचकारी अनुभव होता है। लेकिन बहुत ही कम जगहों को इसके लिए उतनी ख्याति मिलती है जितनी दार्जीलिंग में टाइगर हिल को मिली है। टाइगर हिल दार्जीलिंग शहर से 11 किलोमीटर दूर है। दार्जीलिंग से यहां या तो जीप से पहुंचा जा सकता है या फिर    चौरास्ता, आलूबारी होते हुए पैदल, लेकिन इसमें दो घंटे का समय लग सकता है। टाइगर हिल से सूर्योदय देखने की ख्याति इतनी ज्यादा है कि अल्लसुबह दार्जीलिंग से हर जीप सैलानियों को लेकर टाइगर हिल की ओर दौड़ लगाती नजर आती है ताकि वहां चोटी पर बने प्लोटफार्म पर सूर्योदय कानजारा देखने के लिए अच्छी जगह खड़े होने को मिल सके। हैरत की बात नहीं कि देर से पहुंचने वाले सैलानियों को यहां मायूस रह जाना पड़ता है। सूरज की पहली किरण जब सामने खड़ी कंचनजंघा चोटी पर पड़ती है तो सफेद बर्फ गुलाबी रंग ले लेती है।  धीरे-धीरे यह नारंगी रंग में तब्दील हो जाती है। टाइगर हिल से मकालू पर्वत और उसकी ओट में थोड़ी छाया माउंट एवरेस्ट की भी दिखाई देती है। 1 जनवरी को बेशक थोड़ी सर्दी होगी, लेकिन टाइगर हिल से साल की पहली सुबह को प्रणाम करना एक बड़ा ही रोमांचक अनुभव होगा।

Sun sets at Miramar Beach in Panaji, Goa
गोवा में गोता: निर्विवाद रूप से गोवा देश का सबसे लोकप्रिय तटीय डेस्टिनेशन है। दुनियाभर से सैलानी पूरे सालभर यहां जुटते हैं। गोवा की मौजमस्ती व खुलापन प्रेमी युगलों और नवदंपतियों को भी खासा लुभाता  है। चूंकि गोवा पश्चिमी तट पर है इसलिए यहां आप अरब सागर में साल के आखिरी सूरत को सलाम कह सकते हैं। गोवा में कई लोकप्रिय बीच हैं और आप उनमें से किसी पर भी रेत पर पसर कर सूरज को धीरे-धीरे गहरे समुद्र में धंसता देख सकते हैं। और यकीन मानिए, गोवा के हर बीच पर आपको इस नजारे की खूबसूरती और उसके रंग अलग-अलग मिलेंगे। हर जगह समुद्र नई रंगत में होगा। पुर्तगाली संस्कृति का प्रभाव होने के कारण क्रिसमस व नया साल वैसे भी गोवा में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। उत्तर भारत में उन दिनों सर्दियां होने के कारण भी गोवा में सैलानी खुशनुमा मौसम का मजा लेने ज्यादा आते हैं। इसलिए वहां जाने या रुकने की तैयारी अभी से कर लेनी होगी, देर की तो हो सकता है जगह ना मिले।

Sun rises from sea behind Vivekanand rock in Kanyakumari
कन्याकुमारी का संगम: कन्याकुमारी हमारे देश की मुख्यभूमि का आखिरी सिरा है। यहां अद्भुत समुद्री संगम है। यहां पर बंगाल की खाड़ी, हिंद महासागर और अरब सागर मिलते हैं। इसीलिए इसकी महत्ता किसी तीर्थ से कम नहीं। अंग्रेज इसे केप कोमोरिन के नाम से जानते थे। तमिलनाडु में नागरकोइल व केरल में तिरुवनंतपुरम यहां के सबसे नजदीकी शहर हैं। देश का आखिरी सिरा होने का भाव भी इसे देशभर के सैलानियों में खासा लोकप्रिय बना देता है। लेकिन यहां की सबसे अनूठी बात यह है कि यहां आप एक ही जगह खड़े होकर पूरब से समुद्र में सूरज को उगता हुआ भी देख सकते हैं और पश्चिम में समुद्र में ही सूरज को डूबता हुआ भी देख सकते हैं। यह अद्भुत संयोग आपको देश में और कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए हर साल 31 दिसंबर को बहुत सैलानी जुटते हैं। साल की आखिरी किरण को विदा करने और नए साल की पहली किरण का स्वागत करने के लिए। मौका मिले तो आप भी नहीं चूकिएगा अपने साथी के साथ यहां जाने से।

First rays of sun on Nanda Devi 
सोनापानी में नंदा देवी का नजारा: बात सूरज के उगने या डूबने की हो तो उसकी किरणों से फैलते रंगों का जो खेल पानी में या बर्फीले पहाड़ पर देखने को मिलता है, वो कहीं और नहीं मिलता। इसीलिए सूर्योदय या सूर्यास्त देखने के सबसे लोकप्रिय स्थान या तो समुद्र (नदी व झील भी) के किनारे हैं या फिर ऊंचे पहाड़ों में। उत्तराखंड के कुमाऊं इलाके में नैनीताल जिले में सोनापानी भी उन जगहों में से है जहां से आप नंदा देवी का खूबसूरत नजारा देख सकते हैं। सोनापानी गांव पहाड़ के ढलान पर है और सामने बुरांश के पेड़ों से लकदक दूर तक फैली घाटी है। घाटी के उस पार हिमालय की श्रृंखलाएं इस तरह ऊंची सामने खड़ी हैं, मानो यकायक कोई ऊंची दीवार सामने आ जाए। इन्हीं में भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी भी है। यहां आपको पर्वत के पीछे से उगता सूरज तो नजर नहीं आएगा, लेकिन खुले मौसम में सुबह की पहली किरण में नंदा देवी और बाकी चोटियों के बदलते रंगों में आप खो जाएंगे। कमोबेश ऐसी ही रंगत डूबते सूरज के समय भी रहेगी। दिसंबर-जनवरी में आप सामने के पहाड़ों की ठंडक महसूस कर सकेंगे, हो सकता है कि कभी बर्फबारी से भी दो-चार हो जाएं, लेकिन रूमानियत भरपूर रहेगी। सोनापानी में शानदार कॉटेज हैं, करने व घूमने को बहुत कुछ है और कुछ न करना चाहें तो भी यहां बोर नहीं होंगे। संगीत सुनाती मदमस्त पहाड़ी हवा है और गीत गाते पंछी। अल्मोड़ा व मुक्तेश्वर जैसे सैलानी स्थल भी निकट ही हैं। सर्दी से डर न लगता हो और हनीमून व नया साल,दोनों साथ मनाना चाहें तो इससे बेहतर जगह कोई नहीं। बाकी दुनिया के हो-हल्ले से बहुत दूर- थोड़ा रोमांच और पूरा रोमांस। एक नई शुरुआत के लिए एकदम माफिक जगह है यह।

Sunrise at Havelock in Andaman
अंडमान की पहली लालिमा: सुदूर दक्षिण-पूर्व में अंडमान व निकोबार द्वीप समूह के बीच भारत के सबसे खूबसूरत बीचों में गिने जाते हैं। अंडमान के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वे समुद्र के भीतर इतना दूर हैं कि वहां केवल जहाज से पहुंचा जा सकता है- चाहे वो हवा का हो या पानी का। चेन्नई व कोलकाता से सीधी उड़ान हैं और जहाज भी। नए साल की पहली सुबह को भारत में सबसे पहले समुद्र से उगते देखने का आनंद ही कुछ और है।

Sun sets in Chilika Lake


चिलिका का अस्ताचल: ओडिशा के तीन जिलों- पुरी, खुर्दा व गंजम में फैली चिलिका झील भारत का सबसे बड़ा तटीय लैगून और दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा लैगून है। इसके अलावा भारतीय उपमहाद्वीप में सर्दियों में आने वाले प्रवासी पक्षियों का सबसे बड़ा बसेरा है। कई पक्षी तो सुदूर रूस व मंगोलिया से 12 हजार किलोमीटर तक का सफर तय करके यहां पहुंचते हैं। झील दुर्लभ इरावडी डॉल्फिनों का भी घर है। बेहद खूबसूरत झील में पुरी या सातपाड़ा से नाव से जाया जा सकता है। कहने को यह झील है, लेकिन बीच झील में कई बार आपको चारों तरफ केवल समुद्र दिखाई देगा। चिलिका के सूर्यास्त की बात ही कुछ और है। नाव पर आप अपने साथी के साथ हों, चारों तरफ पक्षियों का कोलाहल हो और साल का आखिरी सूर्य पानी में लाल रंग भर रहा हो तो क्या नजारा होगा। जरूर सोचिएगा।

Sun sets in Ganges at Rishikesh
गंगा की निर्मल धारा: हालांकि हरिद्वार से नीचे गंगा का पानी अब ज्यादातर जगहों पर निर्मल नहीं रह गया है लेकिन ऋषिकेश अब भी इस लिहाज से  सुकून देता है। चूंकि ऋषिकेश में गंगा के दोनों किनारों पर घाट व आश्रम हैं, इसलिए यहां आपको गंगा की धारा में सूरज को डूबते देखने का सुख तो नहीं मिलेगा, लेकिन सूरज की लालिमा में गंगा के पानी के बदलते रंगों का खूबसूरत नजारा बेशक देखने को मिलेगा। ऋषिकेश में सैलानियों का होहल्ला नहीं। वहां एक शांति है और सुकून है। अपने बीते साल पर नजर डालने और नए साल की उम्मीदें जगाने का इससे बेहतर स्थान और क्या हो सकता है। किसी शाम गंगा के किनारे किसी घाट पर बैठकर पानी को ताकते हुए आप घंटों गुजार सकते हैं। कोई हमसफर साथ हो तो बातों का वह सिलसिला शुरू हो सकता है जो खत्म होने का नाम न ले। साल की आखिरी शाम ऐसी किसी सुहानी जगह पर बीते तो भला क्या बात होगी। पसंद है आपकी क्योंकि आखिर दिल है आपका।

Sunday, November 25, 2012

नजरों से दूर एक द्वीपः सैंटोरिनी


प्रकृति ने हमारी धरती पर कई करिश्मे किए हैं। यूरोप में ग्रीस यानी यूनान का सैंटोरिनी द्वीप भी ऐसे की कुछ करिश्मों में से एक है। एक ऐसा द्वीप जो साढ़े तीन हजार साल से भी ज्यादा समय पहले एक भीषण ज्वालामुखीय विस्फोट से पैदा हुआ। लेकिन इसे आप आज देखेंगे तो इसकी खूबसूरती से प्यार कर बैठेंगे। ऐसी बेमिसाल जगह पर अपना हनीमून मनाएं तो क्या बात है...

Blue toned Santorini
जिस ज्वालामुखीय विस्फोट से सैंटोरिनी द्वीप बना, वह धरती के दर्ज इतिहास के सबसे भीषण विस्फोटों में से एक था। इसने दक्षिणी एजियन समुद्र में थिरा द्वीप को समुद्र में कई टुकड़ों में बिखेर दिया और अक्रोटिरी में मिनोअन सभ्यता की समूची बसावट को भी मटियामेट कर दिया। उसके बाद जमीन के इस टुकड़े पर जीवन मानो फिर से शुरू हुआ। आज विस्फोट के बाद बनी चट्टानों, खाइयों, लैगून व समुद्र तटों का यह द्वीप अपनी बिरली बनावट, साज-सज्जा और रिहाइश के लिए दुनियाभर में लोकप्रिय है। यहां की सफेद इमारतें और उनकी नीली छतें, मत्थे अपनी खास पहचान हैं। डूबते सूरज की लालिमा में सैंटोरिनी के ओइआ शहर को देखने के लिए दुनियाभर से सैलानी जुटते हैं। द्वीप को सैंटोरिनी नाम 13वीं सदी में लैटिन साम्राज्य ने दिया जिसका संदर्भ पेरिसा गांव में एक पुराने कैथेड्रल से मिले सेंट इरिन के नाम से है।
थिरा एयरपोर्ट पर पहुंचते ही आप ओइआ के लिए एक टैक्सी लें। यहां पहुंचने में करीब 20 मिनट लगेंगे। यह राजधानी से उत्तर की ओर बढऩे पर करीब 10 किमी बाद आता है। यह गांव पूरे ग्रीस में सबसे महंगा है, लेकिन यह अपनी सारी पहचान बचाकर रखने में भी कामयाब है। गांव की अधिकतर सफेद चर्च पर नीले डोम्स बने हैं। घरों से जुड़ी अधिकतर सीढिय़ां और टैरेस खड़ी चट्टानों पर बने हैं। टैरेस से समुद्र का खूबसूरत नजारा, ज्वालामूखी के अवशेष और पूरा पश्चिमी किनारा दिखता है। शाम और सुबह की खूबसूरती देखने लायक होती है। आप बैठकर इसे निहारने के लिए मजबूर हो जाते हैं।
ओइआ से कार से आप 30 मिनट में पिरगोस पहुंच सकते हैं। यह सैंटोरिनी में संरक्षित मध्यकालीन गांव है। यहां पर गधों पर लदे टमाटर, फावा बींस, शहद और शराब बिकते हुए देखना आनंदायक लगता है। गांव की सफेद छतों से नजारा देखना शानदार है। पिरगोस से करीब 4 किमी दक्षिणपूर्व में प्रोफिटस लियास मोंटेसरी है, जिसकी स्थापना 1711 में द्वीप के सबसे उपरी हिस्से (566 मीटर यानी 1857 फीट) पर की गई थी। अपने गार्डेन, लाइब्रेरी और धार्मिक कला संग्रहालय के लिए प्रसिद्ध यह मांटेसरी सप्ताह में कुछ ही घंटे के लिए लोगों के लिए खुलती है। (बुधवार, शुक्रवार और शनिवार को शाम 4 से 5.30 बजे तक, शनिवार को सुबह 6 से 8.30 बजे तक, रविवार को सुबह 4.30 से 8.30 बजे तक।)
Black Beach
सैंटोरिनी के दक्षिणी तट में काले रेत वाला पेरिवोलोस बीच है जो युवाओं का पसंदीदा स्थल है। इस खूबसूरत बीच पर आप ताजी मछलियों का लुत्फ उठा सकते हैं। जब आप पेरिवोलोस बीच से बाहर निकलते हैं तो एक दूसरे मध्ययुगीन गांव एम्बोरियो का भ्रमण करना न भूलें। यह आधा वीरान पड़ा गांव एक रूसी गुडिय़ा सरीखा है- गुडिय़ा के भीतर एक और गुडिय़ा यानी एक गांव के परकोटे में एक और गांव और फिर परकोटा और फिर गांव। इन दीवारों के पार इस गांव में आप केवल पैदल पहुंच सकते हैं।
सैंटोरिनी के दक्षिणी तट पर स्थित अक्रोटिरी का मिनान शहर 1530 ईसा पूर्व में फटे ज्वालामुखी की राख से तबाह हो गया था। यह जानना काफी रोचक है कि 1967 में ग्रीक पुरातत्ववेता द्वारा इसको खोजे जाने तक यह शहर प्यूमिक स्टोन की एक अभेद पतली परत से ढका हुआ था। इसकी गलियों, दोमंजिले घरों और बड़े मर्तबानों की प्रशंसा की जाती है।

.............................
Cave Pool
अच्छे ट्रिप की तैयारी
कैसे: सैनटोरिनो पहुंचने के लिए सबसे सुगम मार्ग है ग्रीस की राजधानी एथेंस से विमान की सवारी। सफर 50 मिनट की उड़ान का है और उड़ान रोजाना है।
कहां रुकें: ओइया में क्रिस्टा ब्राजिओलिस में किराये पर कमरा करीब 72 यूरो में मिल सकता है।

इटिंग आउट: यहां की टिपिकल वाइन हो या फिर व्यंजन- सैंटोरिनी बहुत ही लाजवाब है। यहां की जमीन दुनिया में अनूठी है। ज्वालामुखीय शुष्क इलाका होने के कारण यहां बहुत ही कम पैदावार है लेकिन जितनी भी है, सब विलक्षण है।
जॉर्ज हत्जिआन्नाकिस का सेलेन रेस्तरां, फिरा। बगैर वाइन के डिनर: 40-60 यूरो में।
जानेमाने शेफ जार्ज हत्जिआन्नाकिस का खूबसूरत रेस्तरां सेलेन (चंद्रमा की देवी) फिरा में पहाड़ी पर किनारे की तरफ बना है। अपने द्वीप की ही पैदावार का इस्तेमाल करके उन्होंने काफी खास किस्म के व्यंजन तैयार किए हैं। चाहे वह मिनिएचर स्वीट टैमेटो हो या फिर फावा बीन या सफेद बैंगन, चने जैसे कैपर्स (जिसकी पत्तियों का सलाद बहुत अच्छा बनता है) या बाजरा। इनके अलावा उस रोज पकड़ी गई मछलियों व अन्य सीफूड तो है ही। साथ ही आप यहां बीन प्यूरी के साथ आर्टिचोक (हाथी चक) में परोसे गए समुद्री अर्चिन के अंडों का स्वाद चखना न भूलें। और यह सब तो केवल बानगी है। ग्रीक में जार्ज हत्जिआन्नाकिस को मास्टर शेफ माना जाता है।
स्कारामगास टेवेरना, मोनोलिथोस।
लेकिन यदि आपका मन सिर्फ ताजी ग्रिल्ड मछली खाने का करता है आप पूर्वी तट पर मोनोलिथोस में स्कारामगास टेवेरना जा सकते हैं। इस टेवेरना (ग्र्रीक कुजिन परोसने वाला एक छोटा रेस्तरां) को मछुआरों का एक परिवार चलाता है, जो दिन में दो बार समुद्र में जाता है। यदि आपको मछली खाने के अलावा कुछ अच्छे फोटो भी लेने हों  तो मछुआरों का बॉस हलारिस वैगेलिस आपको अपनी नाव पर साथ लेकर जा सकता है।

Sunday, September 30, 2012

जीतेजी बस एक बार


देखकर यकीन नहीं होता कि क्या ऐसी खूबसूरत जगहें भी हैं! एक झलक उनकी जहां आप जीतेजी बस एक बार जरूर जाना चाहें

Plitvice Lake National Park, Croatia
प्लिटवाइस लेक नेशनल पार्क
क्रोएशिया का यह सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। 1979 में इसे यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया था। अकल्पनीय रूप से खूबसूरत। इस नेशनल पार्क में 16 झीलें हैं जो झरनों व प्रपातों की कतारों से एक-दूसरे से जुड़ी हैं। यह इलाका ऐसे जंगल में है जिसमें हिरण, भालू व भेडि़ये और दुर्लभ पक्षी मौजूद हैं। पार्क का समूचा इलाका 300 वर्ग किलोमीटर का है और ये 16 झीलें आठ किलोमीटर की दूरी में फैली हैं। इन झीलों में सबसे ऊंची समुद्र तल से 1280 मीटर की ऊंचाई पर है और सबसे निचली 380 किलोमीटर पर। इन्हें जोड़ने वाले झरनों में सबसे ऊंचा 70 मीटर है। इस पार्क की सैर एक अविस्मरणीय अनुभव है।

Pura Tanah Lot, Bali
पुरा तनाह लोत, बाली
यह इंडोनेशिया में बाली के सबसे महत्वपूर्ण समुद्री मंदिरों में से एक है। दक्षिण-पश्चिमी तट से थोड़ी दूर एक विशाल चïट्टान पर बना मंदिर ही तो है लेकिन सूर्यास्त के समय इस मंदिर की जो आभा होती है, उसे सैलानी अभूतपूर्व कहते हैं। भूवैज्ञानी कहते हैं कि हजारों सालों में समुद्री पानी के ज्वार में क्षरण होने से यह द्वीप बना। इस चïट्टान पर यह मंदिर 15वीं या 16वीं सदी में बना। यह मंदिर समुद्र के देवताओं को समर्पित है। बाली के तट पर बने सात मंदिरों में यह एक है। एक श्रृंखला की कड़ी के रूप में हर मंदिर से दूसरा मंदिर दिखता है। मंदिर हिंदू मिथकों से काफी प्रभावित है। सैलानियों में लोकप्रिय।

Tunnel of Life, Ukraine
उक्रैन की टनल ऑफ लव
कुदरत के अजीबोगरीब करिश्मे हमने देखे होंगे, लेकिन उक्रैन में प्रकृति की यह रचना उनमें सबसे खूबसूरत व रोमांटिक में से एक होगी। यह दरअसल क्लेवेन शहर के नजदीक एक फाइबरबोर्ड फैक्टरी के लिए बनी निजी रेलवे लाइन का तीन किलोमीटर लंबा वो हिस्सा है जिसपर पटरी के दोनों ओर खड़े पेड़ों और उनपर लदी लताओं ने सालों में एक सुरंग का आकार ले लिया है। पेड़ों की इस सुरंग में से दिन में तीन बार ट्रेन फैक्टरी के लिए लकडि़यां लेकर गुजरती है। इसकी खूबसूरती इतनी रूमानियत भरी है कि इसे टनल ऑफ लव कहा जाता है और अब तो यह माने जाने लगा है कि जो प्रेमी यहां आकर सच्चे दिल से मुरादें मांगते हैं, उनकी मुराद जरूर पूरी होती है।

Wisteria Tunnel, Kawachi Fuji Garden, Kitakyushu, Japan
एक टनल फूलों की
यह भी उक्रैन की टनल ऑफ लव की ही तरह प्रकृति का ऐसा शानदार नजारा है कि इसके फोटो देखकर लोग अक्सर इसे कोई पेंटिंग मानने की भूल कर बैठते हैं। विस्टेरिया के फूलों की यह टनल जापान में किताक्यूशू शहर में स्थित कवाची फूजी गार्डंस में है। विस्टेरिया रंग-बिरंगे (सफेद, गुलाबी, पीले, बैंगनी, लाल) फूल देने वाली एक लता है जो जापान व चीन में भरपूर होती है। जापान में विस्टेरिया को फूजी भी कहते हैं। कवाची के ये गार्डन टोक्यो से सिर्फ चार घंटे के सफर पर हैं। कई सालों में जाकर इन फूलों ने इस सुरंग का आकार लिया।

समुद्र किनारे रेगिस्तान


दुनिया के टूरिस्ट हॉटस्पॉट में से एक मासपलोमास संयुक्त राष्ट्र के विश्व पर्यटन संगठन द्वारा हर साल मनाए जाने वाले विश्व पर्यटन दिवस के इस साल के मुख्य आयोजनों का मेजबान था। विश्व पर्यटन दिवस हर साल 27 सितंबर को मनाया जाता है। इस साल विश्व पर्यटन संगठन को भी स्थापित हुए 50 साल हो गए हैं।
मासपलोमास स्पेन में केनेरी आईलैंड के दक्षिणी सिरे पर स्थित है। एटलांटिक महासागर से घिरा यह इलाका अपनी अद्भुत भौगोलिक संरचना के कारण बहुत जाना जाता है। मासपलोमास का दक्षिण-पूर्वी सिरा बारह किलोमीटर लंबे व एक से दो किलोमीटर चौड़े रेगिस्तान से पटा है। समुद्र के नीले पानी तक पहुंचने से पहले इन रेतीले टीलों को पार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है मानो आप सहारा या थार के रेगिस्तान से गुजर रहे हों।
मासपलोमास खालिस रूप से एक टूरिस्ट डेस्टिनेशन है। इसलिए यहां का सारा विकास उसी अनुरूप है। पाम स्प्रिंग्स कैलिफोर्निया या पाम बीच फ्लोरिडा की तर्ज पर यह अपने आपमें एक समूचा टूरिस्ट टाउनशिप है। सैलानियों के लिए यहां शॉपिंग व कनवेंशन सेंटर और एम्यूजमेंट पार्क बन गए हैं। यहां अस्पताल व प्राइवेट क्लीनिक हैं। देशी-विदेशी स्कूल हैं (इंग्लिश, स्पेनिश व स्वीडिश)। कैसिनो हैं, गोल्फ कोर्स है, स्पोट्र्स सेंटर, थीम पार्क व समर यूनिवर्सिटी भी है। यहां सैलानियों के लिए तीन, चार व पांच सितारा होटल, लग्जरी होटल, बुटिक होटल, बीच रिजॉर्ट, बंगले व अपार्टमेंट भी हैं। दरअसल यहां का समूचा विकास आर्किटेक्ट्स के बीच एक इंटरनेशनल आइडिया कंटेस्ट के तौर पर 1961 में शुरू हुआ था। इसी ने खास तौर पर सैलानियों के लिए शहरीकरण की परंपरा की नींव रखी।
नेचुरल रिजर्व ऑफ द ड्यूंस ऑफ मासपलोमास यानी इन रेतीले टीलों में स्पेन के ग्रेन केनेरिया का एकमात्र आधिकारिक न्यूडिस्ट इलाका है। ये रेतीले टीले 1897 से ही नेचुरल रिजर्व घोषित हैं। यहीं 1889 में स्थापित 68 मीटर ऊंचा एक लाइटहाउस भी है। लाइटहाउस के साथ ही समुद्री पक्षियों का एक सुरक्षित इलाका भी है। दरअसल इसी लाइटहाउस से रेतीले टीलों की शुरुआत होती है। यह जगह उत्तरी यूरोप से लोगों के लिए सर्दियों का एक पसंदीदा पर्यटन स्थल है।

Saturday, July 28, 2012

नमस्ते लंदन

खेल और वो भी ओलंपिक से इतर कुछ भी नहीं जो इतने खूबसूरत तरीके से अलग-अलग देशों व संस्कृतियों के लोगों को एक साथ लाकर खड़ा कर सके। इस बार सेहरा लंदन के सर है और आगाज भी हो चुका है। लेकिन अभी कुछ दिन हैं और अगर आप लंदन जाने की योजना बना चुके हैं या बना रहे हैं तो आपके लिए हैं कुछ टिप्स- गोल्ड मैडल जीतने के तो नहीं, लेकिन लंदन में ठाठ से सैलानी बनकर घूमने के।

1. लंदन में कैसे करें तफरीह
ओलंपिक के समय लंदन में घूमने के लिए दो चीजें आपको चाहिए होंगी- एक तो ओइस्टर कार्ड और दूसरा, अच्छे वॉकिंग शूज। जिन लोगों के पास किस्मत से किसी दिन के ओलंपिक इवेंट का टिकट है, वे उस दिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट में मुफ्त सवारी कर सकते हैं। लेकिन अगर आपके पास नहीं है तो ओइस्टर ट्रांजिट पास ट्यूब ट्रेन, बस, ट्राम व नेशनल रेल सेवा में सफर करने के लिए सबसे किफायती तरीका है। किराये में बचत के अलावा इससे हर जगह कतार में खड़े होने की जहमत से भी मुक्ति मिल जाएगी। और यदि आप पैदल चलने की हिम्मत दिखा दें तो शायद सफर का वक्त भी बचा लें और ट्यूब में सफर करने के इच्छुक सैलानियों की भीड़ से भी खुद को बचा लें। किराये का खर्च बचेगा, सो अलग। मध्य लंदन की ज्यादातर जगहें नजदीक हैं और साइकिल व पैदल रास्तों से अच्छे से जुड़ी हुई हैं। बस पांवों में अच्छे वॉकिंग शूज हों, तो पैदल चलते हुए लंदन के नजारे दिखेंगे, वो बोनस। तिसपर भी आपका मन न पैदल चलने का है और न पब्लिक ट्रांसपोर्ट में जाने का तो बोरिस बाइक सबसे फिट है। इस साइक्लिंग स्कीम में शहर में चार सौ डॉकिंग स्टेशनों से कोई भी व्यक्ति, जिसके पास कोई क्रेडिट कार्ड हो, साइकिल किराये पर ले सकता है। लंदन में मीलों लंबे सुविधाजनक साइकिल ट्रैक हैं, उन पर साइक्लिंग का अलग ही आनंद है। और तो और, अगर साइकिल किराये पर लेने के बाद आपका सफर आधे घंटे से कम में खत्म हो जाता है तो आपको उसके लिए कौड़ी भी नहीं चुकानी होगी।
2. भीड़ को कैसे दें गच्चा
ट्यूब व बसों की भीड़ को गच्चा देने का तरीका हमने आपको बता दिया, लेकिन भीड़ से जुड़ी एक और चीज है, जिससे बचना लंदन में आपके लिए बहुत जरूरी है, और वो हैं पॉकेटमार। अपने कीमती सामान को बचाने के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है-
  • घूमने गए हैं तो अपना सारा धन, कार्ड व पासपोर्ट वगैरह सब कुछ हमेशा अपने साथ न रखें। जरूरत का धन पास रखें और बाकी सब सामान होटल के कमरे में सुरक्षित छोड़ दें तो बेहतर।
  • अपने साथ जो धन लेकर चल रहे हों, उसे भी एक ही जेब में न रखें, बल्कि अलग-अलग जेबों में बांटकर रखें ताकि जेब कट भी जाए तो कम से कम होटल वापस जाने लायक धन तो आपके पास बचा रहे।
  • अपना पर्स व कार्ड पीछे वाली जेब में न रखें, बल्कि पेंट या जींस की आगे वाली जेब में रखें और समय-समय पर जेब को टटोलते रहें।
 यह कभी न सोचें कि ऐसा मेरे साथ नहीं हो सकता, याद रखें कि जेबतराश बेहद हुनरमंद होते हैं।

3. क्या ले जाएं, क्या छोड़ें
लंदन के बारे में कभी कोई अनुमान लगाकर नहीं चला जा सकता। पता नहीं कब धोखा दे जाए। एक ही दिन में चारों मौसम देखने की नौबत तो शायद न आए लेकिन यह बेहद मुमकिन है कि एक दिन तो आप केवल टी शर्ट पहनकर घूमें और दूसरे ही दिन दो-दो स्वेटर पहनने के बाद भी ठिठुरते घूमें। ऐसे में सामान की पैकिंग बेहद जटिल हो जाती है। इसलिए ओलंपिक का समय गर्मी का होने के बावजूद बेहतर होगा कि अपने साथ गर्म जैकेट व स्कार्फ वगैरह के अलावा छाता व रेनकोट भी जरूर रखें। कपड़े ऐसे पैक करें कि दिन के मौसम की जरूरत के मुताबिक कपड़ों की परतें आसानी से पहनी या उतारी जा सकें।

4. मुफ्त में ओलंपिक
अगर आपके पास ओलंपिक खेलों की किसी भी स्पर्धा का टिकट नहीं है तो भी निराश न हों। आपके पास दुनिया के कई शीर्ष एथलीटों को लाइव देखने का मौका है। कई स्पर्धाएं ऐसी हैं, जिन्हें आप लंदन की सड़कों पर देख सकते हैं- जैसे कि रोड साइक्लिंग, ट्रायथेलॉन, मैराथन, पैदल चाल और तीरंदाजी के कुछ रैंकिंग राउंड्स। भले ही आप कोई भी स्पर्धा, कहीं भी देखें, लेकिन कोशिश करें कि एक सैर ओलंपिक पार्क की भी कर लें। वहां जाकर आप खेलों के माहौल में तो डूब ही सकेंगे, वहां के शानदार शिल्प व डिजाइन को भी नजदीक से निहार सकेंगे।

5. और भी बहुत कुछ है
इतने सबके बाद भी अगर ओलंपिक व ओलंपिक की भीड़ से घबराहट होने लगे तो लंदन में सैर करने की बाकी जगहें तो हैं ही। लंदन के कई ऐसे म्यूजियम हैं जहां लोग कम जाते हैं। कई खूबसूरत पार्क हैं जहां पिकनिक मनाई जा सकती है। आप लंदन पास ले सकते हैं जो आपको लंदन के 55 आकर्षणों में टिकटों की भीड़ से बचाकर प्रवेश दिला सकता है। एडवांस टिकट और अपना समय चुनने की सुविधा होगी सो अलग।
लंदन में आने वाले दिन बेहद व्यस्त हैं। वहां जाने से पहले थोड़ी तैयारी कर लें तो फायदे में रहेंगे।

Friday, June 1, 2012

A comic tour of Tintin land

To every comic lover the name Tintin brings an exciting feeling. Steven Spielberg’s- The Adventures of Tintin- The Secret of the Unicorn, released last year might have renewed interest in Tintin’s country and even inspired a few to be there. Surely, whether you love comics or chocolates, Belgium is a traveler’s delight. And, it certainly has a lot more to offer.


Belgium is the country which gave birth to Tintin. Capital Brussels is fondly called as capital of Tintin by comic lovers around the globe. It all started here when Georges Remi, who would go on to world acclaim as Herge, was born in 1907. Here he grow up, went to school and created his first comic strip. Brussels was his life and obvious source of inspiration. In 1929, Herge first breathed life into his most celebrated hero Tintin in Le Petit Vingtieme (The Little Twentieth), the weekly youth supplement to Brussels-based newspaper Le Vingtieme Siecle (The Twentieth Century). Believe it or not, since 1929 some 230 million Tintin albums have been sold and adventures of this diminutive reporter have been translated into around hundred different languages to date. No wonder, Tintin has the stature of the world’s best-known Brussels resident.

But then, comics in Belgium is limited not just to Tintin, they also have stars like Smurfs and they have a created a huge following of… no, not comic lovers but of comic strip writers. It’s statistically said that with more than 700 comic strip authors, Belgium has more comic strip artists per square kilometre than any other country in the world! It is here that the comic strip has grown from a popular medium into an art in its own right. Nowhere else comics are so strongly rooted in reality and in people's imagination. You can feel it everywhere you go in Belgium. It can be said that the heart of European comic strips beats in Brussels.

This also gives a completely new dimension to travel the land photo-represented mostly by Manneken Pis. Belgium is among the countries that love their art and are most happy to display it publicly. Belgium has indeed been home to many legendry artists like Jan van Eyck and Peter Paul Rubens, but going around in Belgium, it is street art that will fascinate as much as the Graffiti street at Ghent or MAS at Antwerp. And it is certainly not surprising for a country which shed its inhibitions centuries ago to glorify a pissing boy as a mythological icon. And as if it was not enough, went ahead in creating a feminine version as Jeanneke Pis, albeit just about twenty five years ago. It might not be as celebrated as its illustrious partner and there might not be that many visitors as the historical male version attracts, still it sheds light on the inclusive culture of the city.

But then, Brussels was the last stop in my Belgium trip, where my encounter with Tintin was destined. My tryst with Flemish art started well in Bruges during the boat ride in its canals for which it is also called as ‘Venice of The North’. I could see interesting sculptures and paintings along the waterway for full public view. I started enjoying the way art was mingled in the daily life of Flemish people. So much so that I even almost missed the setting of dog scene of the movie ‘In Bruges’. But luck was my way and I managed to even catch that beautifully.

But it was Graffiti street in Ghent that I instantly fell in love with. Had googled about it before the trip and every search result had in fact brought impatient me to the fore. It was something, I haven’t seen anywhere before. A street overflowing with all kind of colourful and expressive graffiti from top to bottom and start to finish, not just on the side walls but on the walkway itself. In it were some finest expressions of feelings, emotions, ideas and ideologies. I was fortunate enough to see some young artists at work. Perhaps it was also the playing ground for all budding comic strip artists of Belgium. They way different graffiti co-existed and were overwritten again and again every time, I couldn’t help thinking that it was where they were sowing the seeds of tolerance within the society.

Antwerp was more of a happening city, often termed as fashion capital or the diamond capital. Here comic art was live and intriguing. You can find all kind of exhibitionists on roads- from pretty guitarists to masqueraders who can fool you (or rather impress you) with their Vincent Van Gogh. Since Belgium is everything about chocolates, you can find all types of experiments with them from body paint to cartoon characters. In Neuhaus chocolatier at Royal Galleries of Saint-Hubert I found a whole range of Tintin comics packaged with chocolate boxes. Kids will just love it.

Brussels’ comic museum is a huge draw for the tourists coming to Belgium. Every year more than 200,000 visitors come here to explore 4,200 m² worth of permanent and temporary exhibitions. At the Belgian Comic Strip Center, you will witness the unusual marriage of the Ninth Art and Art Nouveau, two artistic forms of expression which have always been particularly cherished in Brussels. Besides Tintin, this kingdom of the imagination is home to some of Belgium's best-known comic strip heroes like Spirou, Bob and Bobette, the Smurfs, Lucky Luke, Blake and Mortimer, Marsupilami, etc. They are one big happy family of paper heroes. Belgian Comic Strip Center has become the number one reference for comic strip lovers. It is also a modern research centre which boasts more than 40,000 titles (albums and theoretical works) in more than 20 languages.

But then, as in other cities of Belgium, in Brussels too, comics are not just limited to comic strip museum. Going down the Stoffstraat towards the Manneken Pis, you may find comic scenes drawn across the whole height of side wall of a four-five storey residential buildings and in one of them I even found Tintin coming down a four storey ladder. Ofcourse, when it comes to comics and Tintin you will never escape them when you are in Belgium.

Well Connected:

Capital city Brussels is one of the most well connected European cities from India. We have direct, non-stop, daily flights from all the four metros to Brussels. Once in Brussels, Belgium is well-connected through roads. Driving there is fun through the countryside, a typical European one- lush green. Brussels to Bruges was just a few hours’ drive and then Bruges to Ghent, Ghent to Antwerp and Antwerp to Brussels, every bit worth enjoying.

Sunday, May 27, 2012

अब गोवा में भी उड़ेंगे सीप्लेन

मालदीव व दुनिया की कई अन्य जगहों पर लोकप्रिय सी-प्लेन अब भारत में भी कई जगहों पर दिखने लगेंगे। पिछले साल जनवरी में अंडमान निकोबार द्वीप में भारत की पहली सी-प्लेन सेवा शुरू करने वाली कंपनी मेहएयर (मैरिटाइम एनर्जी हैली एअर सर्विसेज) ने अब गोवा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में भी सी-प्लेन सेवा शुरू करने की योजना बना रही है।


सी-प्लेन वह छोटा हवाई जहाज होता है जो पानी पर टेक ऑफ व लैंडिंग करता है। छोटे-छोटे द्वीपों पर आने-जाने के लिए इस तरह के सी-प्लेन बहुत उपयोगी होते हैं क्योंकि पानी के रास्ते जाने में वक्त बहुत लगता है और बड़े सामान्य हवाई जहाजों के लिए हवाईअड्डे, लंबी रनवे की जरूरत होती है। फिर सी-प्लेन चूंकि बहुत ज्यादा ऊंचाई पर नहीं उड़ते हैं, इसलिए उनसे समुद्र का बेहद शानदार हवाई नजारा मिलता है। पर्यटकों के लिए सी-प्लेन बड़ा आकर्षण होते हैं।

मेहएयर को गोवा में अपने ऑपरेशन के लिए इजाजत मिल गई है और उसने इसके लिए आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्रालयों से एमओयू पर भी दस्तखत कर लिए हैं। अगर सब ठीक रहा तो संभव है कि मानसून के बाद गोवा में सी-प्लेन उडऩे लगें। उसने केरल, पश्चिम बंगाल, गुजरात व लक्षद्वीप की सरकारों के पास भी इसके लिए प्रस्ताव भेजे हैं। कंपनी नौ यात्रियों की क्षमता वाले छह नए सेसना कारवां एम्फिबियेन प्लेन खरीदने की प्रक्रिया में है। आगे जाकर उसकी श्रीलंका में भी ऑपरेशन शुरू करने की योजना है।

राजपथ पर नए तरह की सैर

यह केवल दिल्ली क्या, किसी भी शहर को देखने का नया अंदाज हो सकता है। महज दो-तीन साल पहले की ही तो बात थी, जब हम नए तरह के इस दोपहिया वाहन के बारे में बातें कर रहे थे। देखते ही देखते यह वाहन न केवल बाजार में उतर आया बल्कि सैलानियों के लिए शहरों की सैर का नया जरिया बन गया। भारत के पहले सेगवे टूर की शुरुआत दिल्ली में हो गई है। अब आप इस नए तरह के दोपहिया यानी सेगवे पर दिल्ली के दिल की सैर कर सकते हैं। बैटरी से चलने वाला यह दोपहिया खुद के और उस पर सवार व्यक्ति के वजन व झुकाव को भांपकर संतुलन को अपने आप बनाए रखने में सक्षम है। बीस किमी प्रति घंटे की रफ्तार से यह हर उस जगह जा सकता है जहां कोई पैदल यात्री जा सकता है। बस, इस पर खड़े होइए और चल दीजिए। हाल के सालों में दुनिया के कई (लगभग पांच सौ) शहरों में इस तरह के सेगवे टूर प्रचलित हुए हैं, खास तौर पर उन इलाकों में, जहां किसी और तरीके से नहीं जाया जा सकता।


दिल्ली में फिलहाल ये टूर राजपथ इलाके में शुरू हुए हैं। सेगवे पर सवार होकर आप सचिवालय, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, विभिन्न मंत्रालयों की इमारतें, अमर जवान ज्योति और इंडिया गेट की सैर कर सकते हैं। यह टूर कुल 45 मिनट का होता है। एक सेगवे पर एक ही व्यक्ति सवार होता है और एक बार में एक टूर में पांच सैलानी शामिल हो सकते हैं। इसका प्रति व्यक्ति शुल्क लगभग 1600 रुपये है। अभी तो यह केवल नई दिल्ली में है, लेकिन आने वाले समय में पुरानी दिल्ली के इलाकों में भी इस तरह के टूर संचालित किए जाने की योजना है।

इसे दिल्ली के तेजी से बदलते पर्यटन नक्शे के तौर पर देखा जा सकता है। राष्ट्रमंडल खेलों के समय दिल्ली में हो-हो बसें शुरू हुईं। उसके बाद दिल्ली को बाइसाइकिल पर और फिर नई डिजाइन के रिक्शों पर देखने का प्रचलन चला। अब सेगवे इसकी अगली कड़ी है। लेकिन ज्यादा इलाकों में इसे ले जाने के लिए अच्छी सड़कें और अच्छे फुटपाथ, दोनों चाहिए होंगे। इसी वजह से अभी सेगवे टूर केवल सवेरे के समय हैं, जब सड़कों पर ट्रैफिक का जोर शुरू नहीं होता।

चायल: सुकून भरी खूबसूरती

शिमला या कुफरी जैसी जगह पर आप जब भी जाओ, सैलानियों का अथाह सैलाब मिलेगा। कई बार सोचकर हैरानी होती है कि इतनी भीड़ में भला कोई घूमने का क्या लुत्फ लेगा। फिर, अगर आप कसौली या चायल जैसी जगह पर चले जाएं तो यह धारणा और मजबूत हो जाती है कि वाकई छुट्टियों के नाम पर यदि सुकून चाहिए हो तो शिमला से परे भी कई जगहें हैं। चायल तो खैर शिमला से बहुत दूर भी नहीं है।

चायल इस बात का भी नमूना है कि कैसे साख की लड़ाई में खूबसूरत जगहें बस जाया करती हैं। चायल पहले महज एक खूबसूरत सा पहाड़ी गांव रहा होगा। 19वीं सदी के आखिरी दशक में इसकी तकदीर बदली। भारत में ब्रिटिश सेनाओं के कमांडर की बेटी से प्रेम की पींगें बढ़ाने के मुद्दे पर पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह के शिमला में घुसने पर अंग्रेजों ने रोक लगा दी। महाराजा के मान को इतनी ठेस लगी कि उन्होंने शिमला में अंग्रेजों की शान को चुनौती देने की ठान ली। नतीजा यह हुआ कि शिमला की निगाहों में लेकिन उससे ज्यादा ऊंचाई पर महल बनाने की जिद ने चायल को बसा दिया। इस तरह चायल ऊंचाई में शिमला से ऊंचा है और चायल से शिमला को देखा जा सकता है। मजेदार बात यह है कि महाराजा भूपिंदर सिंह को चायल कुछ समय पहले अंग्र्रेजों ने ही तोहफे में दिया था। उससे पहले चायल तत्कालीन केउथल एस्टेट का हिस्सा था। चायल तीन पहाडिय़ों पर बसा हुआ है। चायल पैलेस राजगढ़ हिल पर है, जबकि रेजीडेंसी स्नो व्यू पंढेवा पहाड़ी पर है। कभी इसका मालिकाना एक ब्रिटिश नागरिक के पास था। तीसरी पहाड़ी सब्बा टिब्बा पर चायल शहर बसा हुआ है।

रात में केवल शिमला ही नहीं, बल्कि कसौली शहर की भी रोशनियां चायल से बड़ी मनोहारी लगती हैं। चायल में शिमला जैसी भीड़ नहीं, दरअसल वह उतना बड़ा भी नहीं। इसलिए यहां शांति है, सुकून है, तसल्ली है। चायल से सामने दूर तक फैली घाटी का नजारा बेहद खूबसूरत है, जो शायद शिमला में भी नहीं मिलता। इसी घाटी में सतलज नदी बहती है। गर्मियों में चीड़ के पेड़ों से बहकर आती हवा ठंडक का अहसास देती है। पतझड़ में पीले पत्तों से ढकी घाटी मानो सुनहरा रंग ओढ़ लेती है। सर्दियों में यही समूची घाटी बर्फ से लकदक सफेद नजर आती है। हर मौसम का अलग रूप।



क्या देखें

चायल में महाराजा पटियाला का पैलेस, वहां का सबसे बड़ा आकर्षण है। सौ साल से भी पुराना यह महल अब होटल में तब्दील हो चुका है। किसी समय देश के सबसे संपन्न राजघराने रहे पटियाला का वैभव व शानो-शौकत आज भी इस पैलेस में साफ नजर आती है।

चायल में 7250 फुट की ऊंचाई पर स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान भी है। खूबसूरत और चीड़ व देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ। हालांकि यह कोई अलग स्टेडियम नहीं बल्कि चायल के मिलिटरी स्कूल का खेल का मैदान है, लेकिन चायल आने वाले सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण। खेल का यह मैदान, पोलो के लिए भी इस्तेमाल आता है और इस लिहाज से यह दुनिया में सबसे ऊंचा पोलो का भी मैदान है।

चायल में दस हजार वर्ग हेक्टेयर इलाके में फैला आरक्षित वनक्षेत्र भी है। इस चायल सैंक्चुअरी में घोरल, सांभर, बार्किंग डीयर व रेड जंगल फाउल समेत कई छोटे जानवर व पक्षी हैं। कभी-कभार तेंदुए यहां देखने को मिल जाते हैं। आधी सदी पहले महाराजा पटियाला ने यहां यूरोपीयन रेड डीयर भी लाकर छोड़े थे। उनमें से भी कोई बचा-खुचा कभी देखने को मिल जाता है क्योंकि उनका अस्तित्व यहां खतरे में है। इसमें जानवर देखने के लिए कई जगह मचान भी बने हैं। इसी तरह इलाके में कई जगह फिशिंग लॉज भी बने हुए हैं। चायल से 29 किलोमीटर दूर गौरा नदी में शौकीन लोग मछली पकडऩे जाते हैं।

चायल में देवदार के पेड़ों के बीच से जंगल में सैर करने का भी अलग आनंद है। आस-पास के गांवों, गौरा नदीं या सतलज के लिए आप यहां से छोटे-छोटे ट्रैक भी कर सकते हैं। सिरमौर जिले में लगभग 12 हजार फुट ऊंची चूड़ चांदनी चोटी के लिए भी यहां से ट्रैक किया जा सकता है। इसे चूड़ चांदनी इसलिए कहा जाता है क्योंकि चांदनी रातों में यहां का ढलान चांदी की चूडि़यों जैसा दिखाई देता है। ऊपर से आसपास का नजारा अद्भुत होता है।

चायल की लोकप्रिय जगहों में से एक सिद्ध बाबा का मंदिर है। कहा जाता है कि महाराजा भूपिंदर सिंह पहले अपना महल उसी जगह पर बनवाना चाहते थे, जहां आज यह मंदिर है। जब महाराजा को यह पता चला कि उसी जगह पर सिद्ध बाबा ध्यान किया करते थे तो भूपिंदर सिंह ने महल थोड़ी दूर बनवाया और उस स्थान पर सिद्ध बाबा का मंदिर बनवाया।

चायल अपने मिलिट्री स्कूल के लिए भी प्रसिद्ध है। यह स्कूल शुरू तो अंग्रेजों ने आजादी से कई साल पहले किया था। पहले यह सिर्फ सेना के अफसरों के बच्चों को सैन्य इम्तिहानों के लिए तैयार करने के इरादे से मुफ्त शिक्षा देने के लिए था। धीरे-धीरे इसके स्वरूप में बदलाव आता गया। आजादी के बाद आम लोगों के बच्चों को भी फीस देकर यहां पढ़ने की इजाजत दी गई।

तोशाली हिमालयन व्यू
दूरी

चायल के लिए कालका से शिमला के रास्ते में कंडाघाट से रास्ता अलग होता है। शिमला से आना चाहें तो कुफरी तक आकर वहां से कंडाघाट वाला रास्ता पकड़ लें तो चायल पहुंच जाएंगे। कुफरी से चायल 23 किलोमीटर दूर है और शिमला से 45 किलोमीटर दूर।
कहां व कैसे

चायल बहुत छोटा शहर है। अभी यहां सैलानियों व लोगों की उस तरह की मारामारी नहीं है। इसलिए होटल भी कम है। महाराजा पटियाला का चायल पैलेस यहां का सबसे बड़ा और आलीशान होटल है। लेकिन यहां कमरे व कॉटेज अलग-अलग कई बजटों के लिए हैं। बाकी होटल मिले-जुले बजट के हैं। गर्मियों में जब सैलानी बढऩे लगते हैं तो लोग कंडाघाट से चायल के रास्ते में साधू-पुल और कुफरी से चायल के रास्ते में शिलोनबाग व कोटी में भी ठहरते हैं। शिलोनबाग में तोशाली हिमालयन व्यू जैसे रिजॉर्ट सुकूनभरी छुट्टियां बिताने के लिए बेहतरीन हैं, जहां आप आपने कमरों से मानो घाटी को छू सकते हैं। दरअसल शिमला में सैलानियों की भीड़ के चलते एकांत के इच्छुक लोग शिमला के बजाय बाहर के इलाकों में रुककर वहां से शिमला, कुफरी, फागु, चायल वगैरह देखना पसंद करते हैं। इसीलिए कंडाघाट से कुफरी का रास्ता होटलों के नए ठिकाने के रूप में खासा लोकप्रिय हो रहा है।

Monday, May 7, 2012

काजा डायरी 5 - जो रोजी-रोटी दे दे, वही अपना देस

वापसी में किन्नर कैलाश के साये में बसे कल्पा के पीडब्लूडी रेस्ट हाउस में पहुंचकर मुझे थोड़ी हैरानी हुई। यह हैरानी वहां के स्टाफ को देखकर थी। आभास और शिवधर झारखंड में गुमला जिले के मूल निवासी हैं। हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में झारखंड के निवासियों को देखकर मै अचरज में पड़ गया था। लेकिन आभास हिमाचल आजकल में नहीं, बल्कि पूरे 24 पहले 1988 में आए थे। उनके कुछ ही समय बाद शिवधर भी पहुंच गए। तब से दोनों तमाम तरह की कच्ची नौकरियां करके आज हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में हैं। यही अब उनका घर है।


प्रवास की बात जब भी हो तो चाहे-अनचाहे बिहार की बात सबसे पहले हो जाती है। इसलिए यहां पहुंचकर यह बहस भी बड़ी बेमानी लगती है कि बिहार में शासन बदलने से रोजी-रोटी के लिए बाहर जाने वालों की तादाद कम हो गई है। स्पिलो से कल्पा के रास्ते में बिहार के दरभंगा जिले के रंजीत व शिवकुमार से मुलाकात हुई। अपने साथियों के साथ वे सड़क से नीचे सतलुज नदी की ओर उतर रहे थे। वे यहां नदी से रेत निकालकर ट्रकों व लॉरियों में भरने का काम करते हैं। यह रेत घर, वगैरह बनाने में इस्तेमाल आती है। सामान्य सा मजदूरी का काम था, कहीं भी हो सकता था। लेकिन रंजीत व उनके साथी आठ सालों से किन्नौर के इस इलाके में मजदूरी करने आते हैं। अकले नहीं, पूरे परिवार के साथ। आखिर महिलाएं भी काम करती हैं, बिलकुल पहाड़ी महिलाओं की तरह दुधमुंहे बच्चों को पीठ पर बांधकर। आठ-नौ महीने यानी अप्रैल से लेकर दिसंबर तक वे यहां काम करते हैं। उसके बाद की सर्दी बरदाश्त नहीं होती तो घर लौट जाते हैं। यहां वे नदी के किनारे या सड़क पर या कहीं पहाड़ी की किसी ओट में झुग्गी बना लेते हैं। रंजीत का कहना था कि इन आठ-नौ महीनों में वे चालीस-पचास हजार रुपये बचा लेते हैं। जब तीन-चार माह के लिए घर लौटते हैं तो कुछ समय मां-बाप, बाकी परिजनों के साथ बिता लेते हैं, थोड़ी मजूरी कर लेते हैं।

स्पीति में ताबो मोनेस्ट्री के ठीक बाहर न्यू हिमालयन अजंता रेस्टोरेंट में जब मैं नाश्ता करने रुका तो मेरी नजर वहां काम कर रहे लड़के पर पड़ी। कुछ बदहवास सा लगता था। उससे बात करने का मन हुआ। कुरेदा तो उसने बताया कि उसका नाम सुनील है और उम्र सोलह साल है। हकलाती जबान में उसने बताया कि चार दिन पहले ही बिहार में बोध गया से वह एक ठेकेदार के साथ यहां पहुंचा है। मां-बाप बोध गया में मजदूरी ही करते हैं। थोड़े ज्यादा पैसे का लालच या सुरक्षित भविष्य की उम्मीद उसे साढ़े दस हजार फुट ऊंचाई पर इस अनजान जगह और प्रतिकूल मौसम में खींच लाई।

किन्नौर में तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर काम करने वाले मेहनतकशों में ज्यादातर बिहार से नजर आते हैं। उसमें भी ज्यादा कष्टसाध्य काम उनके जिम्मे आता है। इस प्रवास में पुराने संपर्क तो रोजगार दिलाने में काम आते ही हैं, लेकिन एक सुव्यवस्थित तंत्र भी इसमें सक्रिय है। यहां काम हासिल करने वाले ठेकेदारों का संपर्क बिहार या कहीं भी कामगार जुटाने वाले लोगों से होता है और वे वहां से उनकी पर्याप्त आवक सुनिश्चित करते हैं। काम ज्यादा है और उसका भुगतान तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, इसलिए एक बार पहुंचने वाले बार-बार आते रहते है। हर बार वे अपने साथ नई तैयार होती कामगारों की खेप भी लेकर आते हैं। इनमें ज्यादातर वही हैं, जो अपने देस में भी मजूरी ही करते हैं और यहां आकर भी। एक न टूटने वाला सिलसिला चलता रहता है।

Sunday, May 6, 2012

काजा डायरी 4 - पर्वतों पर रास्ते जीवन हैं तो क्या...

पर्वतों के रास्ते बड़ा दुष्चक्र हैं। उन्हें बनाना मुश्किल, बनाए रखना मुश्किल और न हों तो वहां पहुंचना मुश्किल। इतनी ऊंचाई पर मोटरसाइकिल चलाकर जाते हुए यह ख्याल सहज ही आता है कि रास्ते बनाने वालों ने इतना जोखिम न लिया होता तो भला हम कैसे यहां पहुंचते! फिर जब किसी भूस्खलन की वजह से रास्ते में अटको तो यह ख्याल आता है कि हर जगह पहुंचने की जद्दोजहद में हमने कहीं यहां प्रकृति से जानते-बूझते खिलवाड़ तो नहीं कर लिया!


रास्ते बनाने होंगे तो पहाड़ों को काटना होगा। पहाड़ काटेंगे तो कमजोर होंगे, ढहेंगे। पहाड़ ढहेंगे तो हम दुबारा नई जगह से पहाड़ काटेंगे। इस बार इतना चौड़ा काटेंगे कि ढहने का असर ही न हो या फिर ऊपर से इतना काट देंगे कि वह ढह ही न पाए। आखिर आगे के इलाकों के लिए रसद-पानी-सामान पहुंचाने के लिए बड़े वाहन जाने होंगे तो उनके लिए भी चौड़े रास्ते बनाने होंगे। हम तो अब पहाड़ी नदियों के पानी का भरपूर इस्तेमाल बांध बनाने के लिए भी कर रहे हैं। बांधों पर पर्यावरण के सवाल तो हम यहां नहीं उठा रहे, लेकिन बांध और फिर बिजनी बनाने की मशीनें पहुंचाने के लिए तो बड़े ट्रैलर भी जाएंगे, उनके लिए और चौड़े रास्ते चाहिए होंगे। यह चक्र खत्म नहीं होता, और पहाड़ कटते रहते हैं। पहाड़ भी खामोश नहीं रहते और अपनी बलि लेते रहते हैं।

इतनी दुर्गम जगह पर रास्ते बनाने के भी अपने जोखिम हैं। चूंकि शीत मरुस्थल का यह इलाका वनस्पति विहीन है, इसलिए पहाड़ बेहद कमजोर हैं। पेड़ नदारद हैं और बड़ी चट्टानें भी कम ही हैं। कई जगह पहाड़ के पहाड़ मिट्टी, छोटे पत्थर या बजरी के मिल जाएंगे। उन्हें छेड़ा जाए तो उनका ढहना अवश्यसंभावी है। वहां बारिश बहुत कम होती है, इसलिए वर्षा के जोर से पहाड़ों में भूस्खलन नहीं होता। किन्नौर व स्पीति के राष्ट्रीय राजमार्ग 22 को बनाने व देखरेख का काम सेना के बीआरओ (सीमा सड़क संगठन) व ग्रेफ (जनरल रिजर्व इंजीनियर फोर्स) के पास है। रास्ते भर, आपको कई ऐसे स्मारक बने मिल जाएंगे, जिनपर उन जवानों व अफसरों के नाम लिखे होंगे जिनकी जानें रास्ते या पुल बनाने के दौरान कुर्बान हो गईं।

राजमार्ग के अलावा दूर-दराज के गांवों के लिए संपर्क मार्ग बनाने का काम लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) के पास है। रास्ते बनाने व उनके रखरखाव का काम स्थानीय स्तर पर रोजगार का भी बड़ा साधन है। तीन-चार हजार मीटर की ऊंचाई पर बने संपर्क मार्गों पर हर थोड़ी दूरी पर स्थानीय महिलाओं का समूह, सड़क की सफाई करता, गिरे पत्थर हटाता नजर आ जाएगा। महिलाएं बताती हैं कि दिनभर अपने हिस्से की सड़क की देखरेख करने के लिए उन्हें पीडब्लूडी अप्रैल से दिसंबर की पूरी अवधि के लिए अस्सी-नब्बे हजार रुपये का धन अग्रिम दे देता है। सर्दियों के बाकी महीनों के लिए भी अलग से पगार मिलती है।

हर साल सर्दियों के बाद बर्फबारी से बंद हुए रास्तों को फिर खोलना भी इन इलाकों की मशीनरी के लिए बड़ा काम है। इस काम को करने के पीडब्लूडी व ग्रेफ के तरीकों में भी अंतर है। काजा में दबी आवाज में कहा जा रहा था कि इस बार लाहौल व स्पीति घाटियों को जोड़ने वाले कुंजम दर्रे को खोलने का काम भी इसी वजह से लेट हो गया है। अब तक यह काम पीडब्लूडी के पास था, इस बार ग्रेफ के हवाले कर दिया गया है जो अभी तक नीचे से बर्फ साफ करने वाली बड़ी मशीनों का इंतजार कर रहे हैं। पीडब्लूडी के लोग कहते हैं कि हमारे पास होता तो हमने अब तक कुंजम पास खोल दिया होता।

काजा से लौटते हुए फिर दो बार पहाड़ काटे जाने की वजह से मुझे अटकना पड़ा और हर बार मैं एक तरफ पहाड़ का ख्याल करता था तो दूसरी तरफ काजा बाइक से आने के अपने सपने के बारे में।

Saturday, May 5, 2012

काजा डायरी 3 - आखिर ऊंचाई में क्या रखा है

किब्बर जाने की इच्छा हमेशा एक भावनात्मक लगाव से जुड़ी रही है। आखिर हम उसे सबसे ऊंचे गांव के रूप में हमेशा से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। देखने को मन करता था कि आखिर एवरेस्ट (8848 मीटर) की लगभग आधी ऊंचाई पर बसा गांव कैसा होगा! इतनी मुश्किल स्थिति में लोग कैसे गुजर करते होंगे! यहां आकर पता चलता है कि स्पीति में चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर बसे गांव कई होंगे। किब्बर (4250 मीटर) को उनमें से कैसे सबसे ऊंचा आंका गया था, यह कौतूहल का विषय है। यह कौतूहल इसलिए और भी है कि अब कुछ और गांव सबसे ऊंचे गांव की दावेदारी में आ गए हैं। इनमें लांगजा और हिक्किम के भी नाम हैं। किब्बर गांव के लिए काजा से कीह गोंपा वाला ही रास्ता जाता है, जबकि लांगजा व हिक्किम कौमिक गोंपा के रास्ते में हैं। किब्बर को सालों पहले सबसे ऊंचा गांव आंकने के पीछे हो सकता है यह वजह भी रही हो कि उस गांव का नीचे के सरकारी अमले से सबसे पहले संपर्क कायम हो गया हो। जैसे-जैसे ऊंचाई वाले इलाकों के लिए संपर्क मार्ग बने हों, नए-नए गांव नक्शे पर आ गए हों। आखिर गांवों की ऊंचाई में तो कोई फर्क न आया होगा, और न ही उन गांवों के लोग अबतक एकांतवास में रहते होंगे। नीचे की दुनिया और आसपास के गांवों से तो उन गांवों के बाशिंदों का संपर्क हमेशा रहा ही होगा।


वन विभाग की स्पीति रेंज में डिप्टी रेंजर और किब्बर के निवासी दोरजे नामग्याल अपने गांव के तमगे पर उठे संशय से दुखी थे। उनका कहना था कि यूं भी टूरिस्टों की आवक कोई बहुत अच्छी न थी, अब नीचे काजा में टूरिस्टों को यह कह दिया जाता है कि सबसे ऊंचा गांव तो किब्बर नहीं, बल्कि लांगजा है। ऊंचाई थोड़ी-बहुत कम-ज्यादा होने से क्या होता है! वैसे यह कम रोचक नहीं कि इतनी ऊंचाई पर बसा यह गांव हमारे मैदानी इलाकों के कई देहातों से ज्यादा खुशहाल है। महज 75 घर और 450 की आबादी वाले इस गांव में सीनियर सेकेंडरी स्कूल है, आधे घरों में सैटेलाइट टीवी के कनेक्शन हैं , अच्छी खेती है और मवेशी हैं। यकीनन इसमें इनकी मेहनत का भी योगदान है जो उन बंजर पहाड़ों में ग्लेशियरों के पानी का इस्तेमाल करके भरपूर जौ तक उपजा लेते हैं।

ऊंचाई के तमगे की ज्यादा परवाह लांगजा को भी नहीं है। वहां के निवासी व सरकारी कर्मचारी तानजिंग कहते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है। किब्बर की तुलना में लांगजा गांव छोटा है, वहां महज 33 घर हैं। वैसे मजेदार बात यह है कि जहां लांगजा गांव पर लगे लोक निर्माण विभाग के बोर्ड पर उसकी ऊंचाई 4200 मीटर लिखी हुई है, वहीं ठीक उसी के बगल में लगे एक स्थानीय संरक्षण संगठन के बोर्ड पर उसकी ऊंचाई 4400 मीटर लिखी हुई है। लांगजा से और आठ किलोमीटर आगे, कौमिक गोंपा के पास स्थित हिक्किम की ऊंचाई भी कमोबेश लांगजा या किब्बर के ही बराबर है। हिक्किम की ख्याति पहले ही सबसे ऊंचे डाकघर के लिए है। वहीं लांगजा में हजार साल पुराना लांग (बौद्ध) मंदिर है। लांगजा के लांग को स्पीति घाटी के सभी देवताओं का केंद्र माना जाता है।

जो भी ऊंचाई हो और कोई भी गांव अव्वल हो, इतना तो तय है कि भौगोलिक संरचना और समाज-संस्कृति के लिहाज से सभी गांव खास अहमियत वाले हैं। उन सभी को देखना एक अलग अनुभूति देता है। यकीनन सभी गांव सैकड़ों साल पहले बसे होंगे। इसके पीछे हो सकता है किन्हीं खास संस्कृति को बचाए रखने की कोशिश भी एक वजह हो।

Friday, May 4, 2012

काजा डायरी 2 - मिट्टी के टीलों पर टिका कई सदियों का इतिहास

ज्यादातर धर्मों में आस्था के बड़े केंद्र दुर्गम स्थानों पर स्थित रहे हैं, जहां पहुंचना आसान या सहज न हो। लेकिन स्पीति के बौद्ध मठों को देखकर दुर्गमता की परिभाषा मानो थोड़ी और विकट हो जाती है। प्रकृति की अनूठी संरचना के बीच इंसानी जीवटता क्या कमाल गढ़ती है, यह ढंकर, कीह, कोमिक या ताबो के गोंपाओं को देखकर जाना जा सकता है। सैकड़ों साल (कुछ तो हजार साल से भी ज्यादा) पुरानी इन इमारतों व उनमें मौजूद कला व शिल्प को आने वाली पीढ़ियों के देखने लायक बनाए रखने के लिए खासी कोशिशों की जरूरत है।


कुछ कोशिश हो भी रही हैं लेकिन देश के भीतर से नहीं, बाहर से। किन्नौर में नाको का गोंपा ग्यारहवीं सदी में बना था। उसके भीतर की मि्टटी की बनी प्रतिमाएं व दीवारों पर बने चित्र कब बने, इस बारे में ठीक-ठीक कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन इतना तय है कि वे सैकड़ों साल पुराने हैं। नाको गोंपा में दीवारों पर बने चित्रों में सोने की नक्काशी थी। ज्यादातर सोना कालांतर में गायब होता गया। चित्रों में गढ़ा सोना कहीं-कहीं अब भी देखा जा सकता है। रखरखाव के बिना पेंटिंग भी इतनी काली पड़ चुकी थीं, कि उन्हें देख पाना तक मुश्किल था। कुछ सालों से कुछ आस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ हर साल कुछ समय वहां बिताकर उन प्रतिमाओं व पेंटिंग्स को सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।

किन्नौर में नाको के अलावा स्पीति में ढंकर, कीह, ताबो व कौमिक गोंपाओं में भी सारी प्रतिमाएं मिट्टी की हैं। ताबो गोंपा में भी बुद्ध के जीवन व उपदेशों पर सोलहवीं सदी की कई पेंटिंग दीवारों पर बनी है और नाको की तुलना में ज्यादा सुरक्षित हैं। शायद इसलिए कि ताबो को संरक्षण ज्यादा मिला। यही बात कीह गोंपा के बारे में भी कही जा सकती है जहां चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर बने मठ में साढ़े चार सौ लामाओं के रहने की व्यवस्था है। वहीं, कौमिक की तो दुर्गमता को देखते हुए बौद्धों के साक्य मत ने काजा में नया गोंपा ही बना डाला।

लेकिन ढंकर गोंपा जितना विलक्षण है, उतना ही उसके लिए संकट भी है। तीन सौ मीटर ऊंचे टीले पर बना हजार साल पुराना गोंपा, कैसे बना होगा और कैसे टिका है, सोचकर हैरानी होती है। विश्व स्मारक कोष ने इसे खतरे में पड़ी दुनिया की सौ जगहों में से एक माना है। इसीलिए दुनियाभर के बौद्ध मतावलंबी व इतिहास प्रेमी इसे बचाने की कोशिशों में लगे हैं। जिस तरह स्पीति के गोंपाओं के भीतर प्रतिमाएं मिट्टी की हैं, उसी तरह उनकी इमारतें भी मिट्टी की हैं। तिब्बत से नजदीकी बौद्ध धर्म को यहां लेकर आई, और मिट्टी का इस्तेमाल यहां की भौगोलिक संरचना की वजह से है। इस ठंडे रेगिस्तान में बारिश इतनी कम है कि सदियों से मिट्टी की बनी चीजें भी ठोस हो गई हैं। कुछ दशकों पहले तक लोग इनके बारे में जानते ही कितना थे। अब जानने लगे हैं तो देखने जाने भी लगे हैं, इसलिए भी इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखना बहुत जरूरी हो गया है।

Thursday, May 3, 2012

काजा डायरी 1 - काम की तलाश में हिमालय की चोटियां भी नाप लेते हैं कदम

मोटरसाइकिल से तीन दिन में 785 किलोमीटर का सफर तय करके जब मैं लगभग 3700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किन्नौर जिले के नाको गांव पहुंचा तो बड़ा अजनबी सा महसूस कर रहा था। इसलिए नहीं कि मेरे लिए जगह नई थी, बल्कि इसलिए कि मैं वहां अकेला सैलानी था। नाको अपनी हजार साल पुरानी मोनेस्ट्री के लिए जाना जाता है। उत्तर भारत में पिछले बीस दिनों से बिगड़े मौसम ने जहां मैदानी इलाकों में गर्मी को थोड़ा लेट कर दिया, वहीं पहाड़ के इस हिस्से में ठंड को थोड़ा ज्यादा लंबा कर दिया। इसलिए इधर सैलानियों का आना अभी शुरू नहीं हुआ है। नीचे बारिश, ऊपर बर्फबारी और सांय-सांय करती हवा ने जीवन को मुश्किल में डाल रखा है। खास तौर पर प्रवासी कामगारों के लिए। अब यह सोचना मुश्किल है कि कोई सुदूर बिहार से यहां इतने विषम इलाके में रोजी-रोटी के लिए भला क्यों आएगा, लेकिन छपरा के ब्रजकिशोर शर्मा पिछले आठ साल से यहां गर्मियों के छह महीने में कारपेंटरी करने आते हैं। अप्रैल में पहुंचते हैं, जब मौसम बरदाश्त करने लायक हो जाता है और सितंबर-अक्टूबर में घर लौट जाते हैं। बमुश्किल डेढ़ सौ घरों के गांव में भला इतना क्या काम कारपेंटरी का होता होगा? ब्रजकिशोर कहते हैं कि कभी-कभी तो पूरा सीजन एक ही घर में निकल जाता है और उसमें भी काम पूरा नहीं होता। नए मकान, होटलों आदि में खूब काम है। यही कारण है कि दुष्कर इलाके और अलग संस्कृति में भी ब्रज जैसे कई और यहां हैं। प्रवासियों के लिए यहां काम भी कई तरह के हैं।


रिकांगपियो से अर्जुन हर साल गर्मियों में यहां आकर सैलानियों के लिए टेंट लगाते हैं। मौसम ने इस साल उन्हें भी कुछ दिन लेट कर दिया। मौसम से हमीरपुर के पचास से ज्यादा उम्र के राजकुमार भी खूब परेशान थे। इतनी ऊंचाई पर मैदानी इलाकों के लोगों को सांस लेने में वैसे ही थोड़ी मुश्किल हो जाती है, ऊपर से वह ठंड से बेहाल थे। कह रहे थे कि यही हाल रहा तो दो-तीन दिन में लौट जाऊंगा। वह अपने कुछ साथियों के साथ प्लंबर का काम करने के लिए हर साल यहां आते हैं। हर साल गर्मियों की शुरुआत में उन्हें गांव की सारी पाइपलाइनें जोड़नी होती हैं। सर्दियों में (अक्टूबर में) वे इन सारी पाइपलाइनों को खोलकर नीचे चले जाते हैं। पाइपलाइनें लगी रहें तो सर्दियों में पानी के जम जाने से फट जाएं। गर्मियों में इन प्रवासी प्लंबरों के यहां पहुंचने के बाद ही पाइपलाइनें जोड़ने का काम शुरू होता है। तभी घरों व होटलों में नलों में पानी आना शुरू होता है, तभी गीजर चलते हैं। नलों, लाइनों की मरम्मत, कनेक्शन वगैरह का काम इतना होता है कि राजकुमार जैसे कुछ प्लंबरों के छह महीने यहां गुजर जाते हैं।

लेकिन प्रवास की एक उलटी धारा भी है जो सर्दियों में बहती है। नीचे रामपुर के नजदीक दत्तनगर में 18 साल का देव मिला जो सड़क किनारे डिब्बों में मधुमक्खियां पालकर शहद इकट्ठा कर रहा था। कहता था कि उसका शहद डाबर कंपनी वाले ले जाते हैं। अभी यहां सेब व अन्य फूलों के खिलने के मौसम में मधुमक्खियां अच्छे से पल जाती हैं। जब यहां सर्दियां पड़ने लगेंगी तो देव या तो हरियाणा चला जाएगा जहां सूरजमुखी के खेतों के पास मधुमक्खियां पालेगा, या फिर राजस्थान चला जाएगा, जहां सरसों के पीले फूलों के साये में उसकी मधुमक्खियां पलेंगी। रोटी की जरूरत है, कोई वहां से यहां आता है तो कोई यहां से वहां। मुश्किलों से तो हर कोई लड़ता है।

Sunday, January 29, 2012

नाव का गंडोला

इंजीनियरिंग का करिश्मा: फॉलकिर्क व्हील

गंडोले में या फेरी व्हील में झूले पर बैठकर ऊपर जाते-नीचे आते तो हम सबने देखा-सुना महसूस किया है, लेकिन यहां हम ऐसे गंडोले की बात कर रहे हैं जिसमें नावें ऊपर-नीचे आती जाती है। स्कॉटलैंड की फोर्थ एंड क्लाइड नहर को 35 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यूनियन नहर से जोडऩे वाला यह गंडोला दुनिया में इंजीनियरिंग के नायाब करिश्मों में से एक माना जाता है। पहाड़ी घाटी में नदियों या नहरों में नावों के आने-जाने के लिए लॉक या लिफ्ट की तकनीक यूरोप में सदियों से रही है। फॉलकिर्क व्हील उसी का उन्नत स्वरूप है। पहले यह काम इस रास्ते पर बने 11 लॉक के जरिये किया जाता था। 1930 में यह लॉक इस्तेमाल में आना बंद हो गए। ग्लास्गो को एडिनबर्ग से फिर जोडऩे की कवायद में इस व्हील की कल्पना रची गई।

यह व्हील एक चक्कर में ऊपर वाली नहर से नाव को उठाकर नीचे और नीचे वाली नहर से नाव को ऊठाकर ऊपर ले जाता है। दुनिया में कई चर्चित बोट लिफ्ट हैं, लेकिन यह दुनिया में अकेली घूमने वाली बोट लिफ्ट है। आर्कीमीडीज के सिद्धांत पर काम करने वाली यह लिफ्ट एक चक्कर महज साढ़े पांच मिनट में पूरा कर लेती है और इस पर चार मिनट में महज डेढ़ किलोवॉट-घंटा की ऊर्जा (जितनी केवल आठ केतली पानी उबालने में खर्च होती है) इस्तेमाल आती है। इस अनूठी चीज को महसूस करने के लिए सैलानियों की आवक कम नहीं। लिहाजा ऊपर से नीचे आने और नीचे से ऊपर आने के दोनों अनुभवों के साथ नहर में एक घंटे का नौकाविहार सैलानी कर सकते हैं।

इस दुनिया से रश्क कीजिए

यह हममें से ज्यादातर के बूते के बाहर की बात है। इसकी कल्पना मात्र विलासिता का चरम आभास देती है। और यह कोई क्रूज जहाज नहीं, जैसा कि तस्वीरों से आभास होता है। बाहर से भले ही यह क्रूज जहाज लगे लेकिन यह पानी पर बसी एक दुनिया है। यह पूरी दुनिया में निजी स्वामित्व वाला सबसे बड़ा निवासीय जहाज है। यानी इसमें लोगों के घर हैं और घर कोई मामूली नहीं। अब घर हैं तो यह जहाज भी कोई शोपीस नहीं। यह जहाज पूरी दुनिया घूमता है। यानी इसके घरों के बाशिंदों को पूरी दुनिया घूमने के लिए अपने घरों से बाहर नहीं निकलना पड़ता। उनके घर पूरी दुनिया घूमते हैं। अब यह कोई आम क्रूज जहाज होता, तो इतने बड़े जहाज में 1800 से ज्यादा यात्री होते। लेकिन चूंकि इसमें स्वीट या कमरे न होकर आलीशान घर हैं, तो लिहाजा इसमें 165 आलीशान निजी लग्जरी अपार्टमेंट हैं।


यह द वर्ल्ड है, और नाम के अनुरूप वाकई एक अलग दुनिया। इसके लग्जरी अपार्टमेंट के मालिक इस दुनिया के निवासी हैं। इस समय इन निवासियों में अमेरिका, यूरोप, एशिया, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका व दक्षिण अफ्रीका के लगभग 19 देशों के 130 परिवार शामिल हैं। ये सब लोग इस जहाज के साझा मालिक हैं और यह सब मिलकर तय करते हैं कि जहाज किस समय दुनिया के किस समुद्र को चीरेगा और किस तट को चूमेगा। जानकर हैरानी होगी कि बीते साल इस जहाज ने पचास से ज्यादा देशों की सैर की। अमूमन हर शहर में यह दो से पांच दिन रुकता है। यह जहाज बहामास में रजिस्टर्ड है और फ्लोरिडा से इसका संचालन होता है। इसपर 250 लोगों का क्रू है।

जब मैंने यह लिखा कि यह हममें से ज्यादातर के बूते के बाहर की बात है, तो महज अतिश्योक्ति नहीं थी। जहाज के 165 अपार्टमेंट में से 106 अपार्टमेंट, 19 स्टूडियो अपार्टमेंट और 40 स्टूडियो हैं। कुछ समय पहले तक द वल्र्ड में महज 328 वर्ग फुट के एक स्टूडियो की कीमत 6 लाख अमेरिकी डॉलर (तीन करोड़ रुपये) थी। दो बेडरूम वाले ओशन स्टूडियो की कीमत लगभग 30 लाख अमेरिकी डॉलर (लगभग 15 करोड़ रुपये) है। वहीं पांच बेडरूम वाले द वल्र्ड स्वीट की कीमत 1.35 करोड़ अमेरिकी डॉलर (लगभग 67 करोड़ रुपये) है। इतना ही नहीं, इसके निवासियों को जहाज के ईंधन, क्रू, रख-रखाव व मालिक के भोजन खर्च के लिए कम से कम बीस हजार अमेरिकी डॉलर (दस लाख रुपये) हर माह देने होते हैं। इस हिसाब से सालाना मेंटनेंस ही एक करोड़ रुपये से ऊपर का हो जाता है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह किसके हैसियत में है। तिस पर भी कुछ ही परिवार हैं, जो इसे अपना मुख्य घर बनाकर सालभर जहाज पर ही रहते हैं। ज्यादातर लोग साल में तीन-चार महीने का वक्त ही यहां गुजारते हैं। कभी कोई, तो कभी कोई। औसतन डेढ़ सौ निवासी ही इस जहाज पर रहते हैं। इस कीमत पर भी 2002 में पानी में उतरी इस दुनिया के सभी घर 2006 तक बिक चुके थे। हालांकि जो लोग खुद को खुशकिस्मत मानते हों तो अभी कुछ लोग अपने अपार्टमेंट बेचने की फिराक में हैं। हाथ आजमाइगा?