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Tuesday, December 28, 2010

जो कूदा वो सिकंदर

गहरी उथल-पुथल के बाद शांत होती धडकनों से मैं मुझे दिए गए सर्टीफिकेट को पढ रहा था। मेरे नाम व शहर के बाद लिखा था कि मैंने अपने भीतर छिपे टार्जन को पहचान कर, सिर्फ एक रबर कॉर्ड (रस्सी) के सहारे 83 मीटर से बंजी जंपिंग करके माता पृथ्वी और पितामह ग्रेविटी (गुरुत्वाकर्षण) को गौरवान्वित किया है। सबसे नीचे पुनश्च: में लिखा था- हम शपथपूर्वक कहते हैं कि हमने इन्हें धक्का नहीं दिया। यानि कूदने की हिम्मत मैंने खुद जुटाई थी। सर्टीफिकेट के साथ मिली डीवीडी में इस बात का वीडियो सुबूत भी था। मैं बाकी पूरी उम्र उस डीवीडी को देख और बाकियों को दिखाकर इस बात की तसदीक भी कर सकता था कि मैंने वाकई यह कर डाला था। अब आखिर यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं, भारत की सबसे ऊंची बंजी जंपिंग जो थी। और आपने चाहे जितनी बंजी जंप लगाई हों, बंजी के प्लेटफार्म पर खडे होकर नीचे देखना, हमेशा रोंगटे खडे करता ही है। वो छलांग हर बार भीतर एक हौल पैदा करती ही है। हर बार छलांग लगाने के बाद टांग में रस्सी का खिंचाव होने से पहले के पलों में पेट में खालीपन लगता ही है। न तो यह कोई मामूली चुनौती है और न ही कमजोर दिल वालों के बूते की बात। मजेदार बात यह है कि आप इतनी ऊंचाई से छलांग लगाने के लिए दिल-दिमाग को चाहे जितना तैयार कर लें, मजबूत कर लें.. लेकिन बंजी के प्लेटफार्म पर पहुंचकर और कूदने का अहसास भीतर पसरते ही सारी तैयारी हवा हो जाती है और उसके बाद केवल आप होते हैं और आपकी हिम्मत। फिर जब आप हिम्मत दिखा ही दें तो क्यों न उसके गुण गाएं। भारत के लिए बंजी जंपिंग थोडी नई चीज है। यूं तो बडे शहरों के शॉपिंग मॉल्स और अम्यूजमेंट पार्को में बच्चों को बंजी जंपिंग के नाम पर खूब उछाला जा रहा है, लेकिन वह दरअसल रिवर्स बंजी जंपिंग का बाल स्वरूप है। बंजी जंपिंग जैसा उसमें कुछ नहीं। हां, थोडी बहुत असली बंजी जंपिंग भी हो रही है लेकिन क्रेनों पर लगाए गए 20-30 मीटर ऊंचे प्लेटफार्म से। लेकिन ऋषिकेश के निकट जंपिंग हाइट्स में बंजी के लिए एक विशेष स्थायी प्लेटफार्म पहाडी पर बनाया गया है और वहां से बंजी के लिए नीचे नदिया की धार में 83 मीटर की छलांग लगानी होती है। भारत ही नहीं, संभवतया पूरी दुनिया में खास तौर पर बंजी जंपिंग के लिए तैयार किया गया यह अपनी तरह का अकेला कैंटीलिवर प्लेटफार्म है।
यूं तो दुनिया में छलांग लगाने का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है और अब कई जगहों पर इससे भी ज्यादा ऊंचाई से व्यावसायिक बंजी जंपिंग होती है, लेकिन ज्यादातर जंप टॉवर, इमारतों, पुलों, बांधों, प्रपातों वगैरह से होती हैं। जंपिंग हाइट्स में बंजी भारत के लिए पहली भी है और अनूठी भी। जंपिंग हाइट्स भारत का अपनी तरह का अकेला एडवेंचर जोन है और किसी शहरी जंगल की बजाय हिमालय की तलहटी में, प्रकृति की गोद में इसका होना इसकी विशेषता है। लेकिन काबिलेतारीफ तो यहां की हर चीज है। इतनी दुष्कर जगह पर इस तरह की सुविधा खडी कर देना हैरत में डालता है। यहां का ढांचा, सुविधाएं, स्टाफ, तकनीक व सुरक्षा इंतजाम, सब विश्वस्तर का है, जैसा आपको आम तौर पर भारत में देखने को नहीं मिलता। वो भी तब जबकि भारत में रोमांचक पर्यटन के लिए कोई दिशानिर्देश तय नहीं हैं। जंपिंग हाइट्स पूर्व सैन्य अफसर राहुल की परिकल्पना है जिन्होंने एनडीए व आईएमए के अपने साथी कर्नल मनोज रावत के साथ मिलकर इसे अमली जामा पहनाया। इस सपने को पूरा होने में चार साल का वक्त लगा। इसकी तकनीकी कुशलता व सुरक्षा इंतजामों से किसी तरह का समझौता न करते हुए न्यूजीलैंड से सबसे काबिल तकनीशियन, ऑपरेटर और जंप मास्टर्स बुलाए गए। यहां की बंजी न्यूजीलैंड के डेविड अलार्डिस ने डिजाइन की है जिन्होंने मकाऊ व नेपाल में भी बंजी डिजाइन कर रखी हैं। बता दूं कि न्यूजीलैंड को इस तरह के रोमांचक खेलों का गढ माना जाता है। लेकिन जंपिंग हाइट्स केवल बंजी जंपिंग नहीं है। वहां पंछियों की तरह उडने के लिए फ्लाइंग फोक्स भी है और वादी में झूला झुलाने के लिए जियांट स्विंग भी। और, रोमांचक ये दोनों भी कम नहीं।
बंजी की बमुश्किल दो मिनट की उठापटक के बाद नीचे उतरना वैसा ही लगता है जैसे कि फीजिक्स की भाषा में कहें तो किसी वस्तु को सेंट्रीफ्यूग में डालने के बाद जब चीज थमती है या घरेलू भाषा में कहें तो मिक्सी में जैसे चटनी चलाकर जब उसे रोका जाता है। जाहिर है चटनी मैं ही था। नीचे जंपिंग हाइट्स की रूपा ने सीने पर तमगे की तर्ज पर एक बैच टांगा, जिस पर लिखा था- आई हैव गॉट गट्स, यानि मुझमें है दम। नदी की धार से पहाडी चढते हुए ऊपर मुख्य परिसर तक एक किलोमीटर का सफर पेडों के बीच से बंजी के प्लेटफार्म को ताकने और यह अहसास गले के नीचे उतारने में बीत जाता है कि मैं वाकई वहां से कूदा था।
फ्लैशबैक से लौटकर मैंने नीचे वाला फ्लाइंग फोक्स का सर्टीफिकेट पढना शुरू किया। लिखा था- मैंने बिजली की तेजी से उडने की कोशिश करके अंकल आंइस्टीन व अंकल न्यूटन को गौरवान्वित किया और अपने भीतर सुपरमैन की खोज करके एक किलोमीटर तक 160 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से उडान भरी.. आइए परिंदा बनने के लिए।


क्या बला है बंजी जंपिंग
सीधे शब्दों में कहें तो पांवों से रबर की रस्सी बांधकर कूदने को कहा जाता है- बंजी जंपिंग। रस्सी में लोच होता है जिसके चलते कूदने के बाद आप कुछ देर तक हवा में उछलते रहते हैं। फिर जैसी जगह हो, आपको या तो रस्सी में ढील देकर नीचे उतार लिया जाता है और अगर यह मुमकिन न हो ऊपर खींच लिया जाता है। सतह से कूदने की जगह की ऊंचाई जितनी बढती जाएगी, रोमांच भी बढता जाएगा। पीठ, हड्डी या रक्तचाप की तकलीफ वाले लोगों के लिए यह दुष्कर है। मकाऊ टॉवर से दुनिया की सबसे ऊंची बंजी जंपिंग कराई जाती है जो 233 मीटर की छलांग है। इसके अलावा स्वीडन के वर्जास्का बांध से 220 मीटर, दक्षिण अफ्रीका में ब्लोक्रैंस ब्रिज से 208 मीटर और ऑस्ट्रिया में यूरोपाब्रक ब्रिज से 192 मीटर की जंप होती है। ये सब जगहें वो हैं जहां से कमर्शियल जंप होती हों। वैसे सबसे ऊंची बंजी जंप अमेरिका के कोलोराडो में रॉयल गॉर्ज ब्रिज से है (321 मीटर), लेकिन यहां से केवल खास मौकों पर दुर्लभ जंप की ही इजाजत है।


भारत का पहला एडवेंचर जोन

जंपिंग हाइट्स ऋषिकेश से लगभग 15 किलोमीटर दूर मोहनचट्टी गांव के निकट है। आधा रास्ता वही है जो नीलकंठ जाता है। आप चाहें तो अपने वाहन से जा सकते हैं, वरना लक्ष्मण झूले के दूसरी ओर जंपिंग हाइट्स की लग्जरी बसें आपको ले जाने के लिए सवेरे 8.30 बजे से दोपहर 2.30 बजे तक हर आधे घंटे में तैयार रहती हैं। वहां रुकने की व्यवस्था नहीं है, इसलिए रुकने का इंतजाम ऋषिकेश में ही करें। जंपिंग हाइट्स में बंजी के अलावा दो और रोमांच हैं- फ्लाइंग फोक्स और जियांट स्विंग। ये दोनों भी भारत के लिए अनूठे हैं। फ्लाइंग फोक्स तो एशिया की सबसे लंबी है। सभी के लिए कम से कम 12 साल की उम्र होनी चाहिए। सेहत को लेकर भी मानक सख्त हैं। यह भी ध्यान रखें कि बंजी के बाद नीचे से ऊपर आने के लिए और फ्लाइंग फोक्स प्लेटफार्म तक जाने-आने के लिए थोडी पहाडी चढनी-उतरनी पडती है। जंपिंग हाइट्स परिसर में शानदार कैफेटेरिया और बाकी काबिलेतारीफ सुविधाएं मौजूद हैं। साथ ही जंपिंग हाइट्स की यादें लाने के लिए एक सोवेनियर शॉप भी है। दरें ज्यादा लग सकती हैं, लेकिन फिर रोमांच की थोडी कीमत तो चुकानी ही पडती है। आखिर जंपिंग हाइट्स को शुरू हुए दो ही महीने हुए हैं लेकिन कई रोमांचप्रेमी केवल इसके बारे में जानकर ऋषिकेश में डेरा डालने लगे हैं। रिवर राफ्टिंग जोड लें तो ऋषिकेश इस समय एडवेंचर पर्यटन के गढ के रूप में उभर रहा है।

Thursday, December 2, 2010

केरल की आबोहावा में होकर तरोताजा

ललाट पर गिरकर कपाट के साथ बहते गर्म तेल से मानो भीतर की सारी थकान, जडता पिघल-पिघल कर नीचे रिस रही थी। मेरे लिए यह पहला अनुभव था। इतना घूमने के बाद भी स्पा या आयुर्वेदिक मसाज के प्रति कोई उत्साह मेरे भीतर नहीं जागा था, पहली बार केरल जाकर भी नहीं। इसलिए केरल की दूसरी यात्रा में कैराली में मिला यह अहसास काफी अनूठा था क्योंकि शिरोधारा के बारे में काफी कुछ सुना था।
माथे पर बहते तेल को एक जोडी सधे हाथ सिर पर मल रहे थे। दूसरे जोडी हाथ बाकी बदन का जिम्मा संभाले हुए थे। यूं तो अभ्यांगम समूचे बदन पर मालिश की अलग चिकित्सा अपने आप में है, लेकिन बाकी तमाम चिकित्साओं में भी सीमित ही सही, कुछ मालिश तो पूरे बदन की हो ही जाती है। फिल्मों, कहानी-किस्सों में राजाओं, नवाबों, जागीरदारों की मालिश करते पहलवानों के बारे में देखा-सुना था, मेरे लिए यह साक्षात वैसा ही अनुभव था। फर्क बस इतना था कि दोनों बगल में पहलवान नहीं थे बल्कि केरल की पंचकरमा और आयुर्वेद चिकित्सा में महारत हासिल दो मालिशिये थे। हर हाथ सधा हुआ था। निपुणता इतनी कि बदन पर ऊपर-नीचे जाते हाथों में सेकेंड का भी फर्क नहीं। ट्रीटमेंट कक्ष में कोई घडी नहीं थी लेकिन पूरी प्रक्रिया के तय समय में कोई हेरफेर नहीं। थेरेपिस्ट की कुशलता और उसका प्रशिक्षण कैराली की पहचान है। लगभग पचास मिनट तक गहन मालिश के बाद शरीर के पोर-पोर से मानो तेल भीतर रिसता है (बताते हैं कि शिरोधारा में लगभग दो लीटर तेल माथे पर गिरता है, तेल में नहाना तो इसके लिए बडी सामान्य सी संज्ञा होगी)। जिन्हें इसका अनुभव नहीं है, उनके लिए पहला मौका बडा मिला-जुला होगा, कभी बदन पर गरम तेल रखे जाते ही बेचैनी सी होगी तो, कभी लगेगा मानो बदन टूट रहा हो और कभी निचुडती थकान आपको मदहोश सा कर देगी। लेकिन कुल मिलाकर ऐसा पुरसुकून अहसास जो आपको पहली बार के बाद दूसरी बार के लिए बुलाता रहेगा।
मालिश, जिसे रिजॉर्ट अपनी भाषा में ट्रीटमेंट या थेरेपी कहते हैं (आखिर मालिश बडा देहाती-सा लगता है) के बाद चिकना-चिपुडा बदन लेकर स्टीम रूम में ले जाया जाता है। सिर से नीचे के हिस्से को एक बक्से में बंद कर दिया जाता है और उसमें भाप प्रवाहित की जाती है। मालिश से बाद शरीर से निकले तमाम विषाणु भाप के चलते बाहर आ जाते हैं और पांच मिनट के भाप स्नान के बाद गरम पानी से स्नान आपके शरीर को तरोताजा कर देता है। वह ताजगी आपको आपको फिर वहां लौटने के लिए प्रेरित करती है, जैसे कि मुझे, लेकिन मैंने इस बार एलाकिझी थेरेपी चुनी। इसमें कपडे की थैलियों में औषधीय पत्तियां व पाउडर बंधा होता है और उन थैलियों को गर्म तेल में भिगोकर उससे पूरे बदन की मालिश की जाती है।
थेरेपी केरल व कैराली में कई किस्म की हैं। आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा के हाल में बढे प्रभाव के कारण बडी संख्या में लोग अलग-अलग मर्ज के इलाज के लिए यहां आने लगे हैं। लेकिन कैराली समेत यहां के तमाम रिजॉर्ट रोगों के इलाज के साथ-साथ आपके रोजमर्रा के जीवन के तनाव को कम करने और आपको नई ऊर्जा देने के लिए भी पैकेज डिजाइन करते हों। और तो और केरल के आयुर्वेद रिजॉर्ट हनीमून तक के लिए पैकेज देने लगे हैं। लेकिन बात किसी चिकित्सा पद्धति की हो तो अक्सर बात उसकी प्रमाणिकता की भी उठती है। उनकी काबिलियत उसी आधार पर तय होती है। आयुर्वेद को भुनाने को लेकर हाल में जिस तरह की होड शुरू हुई है, उसमें यह पता लगाना जरूरी हो जाता है कि आप जहां जा रहे हैं, वहां आपको आयुर्वेद के नाम पर ठगा और लूटा तो नहीं जा रहा। क्योंकि अव्वल तो वैसे ही ये पैकेज महंगे होते हैं, दूसरी ओर सामान्य अपेक्षा यह होती है कि आप कुछ दिन रुककर पूरा ट्रीटमेंट लें, तो खर्च उसी अनुपात में बढ जाता है। केरल के पल्लकड जिले में स्थित कैराली आयुर्वेद रिजॉर्ट (कोयंबटूर से 60 किमी) को नेशनल जियोग्राफिक ट्रैवलर ने दुनिया के पचास शीर्ष वेलनेस स्थलों में माना है। किसी आयुर्वेद रिजॉर्ट की अहमियत उसके ट्रीटमेंट के साथ-साथ वहां के वातावरण, माहौल, आबो-हवा, खानपान और चिकित्सकों से भी तय होती है। कैराली के पास न केवल अपना ऑर्गनिक फार्म है जहां रिजॉर्ट में इस्तेमाल आने वाली सारी सब्जियां उगाई जाती हैं, बल्कि एक एकड में फैला हर्बल गार्डन भी है, जहां केरल में मिलने वाले ज्यादातर औषधीय पौधों को संरक्षित करने की कोशिश की गई है।
15 एकड में फैले रिजॉर्ट में हजार से ज्यादा नारियल के वृक्ष हैं और नौ सौ से ज्यादा आम के। इतनी हरियाली और इतनी छांव कि तपते सूरज की गरमी और बरसते आसमान का पानी नीचे आप तक पहुंचने में कई पल ज्यादा ले लेता है।

Thursday, August 5, 2010

केवल होटल नहीं, एक अजूबा

यहां की हर चीज भव्य है। 57वीं मंजिल पर बने स्काईपार्क से लेकर कैसिनो में लगे दुनिया के सबसे विशाल क्रिस्टल झाड़फानूस तक। मैरिना बे सैंड्स को मशहूर इस्राइली आर्किटेक्ट मोशे ने डिजाइन किया है जिन्होंने हरमंदिर साहिब में खालसा म्यूजियम का डिजाइन भी तैयार किया है


मैरिना बे सैंड्स की खासियत केवल यह नहीं है कि यह सिंगापुर का सबसे बड़ा होटल है जिसमें 55-55 मंजिल के तीन अनूठे टॉवरों में ढाई हजार से ज्यादा लग्जरी कमरे व स्वीट हैं। होटल के टॉवर ढलवां हैं। नीचे से 23वीं मंजिल तक तो तीनों टॉवर एक ही है, लिहाजा एक ही इमारत का स्वरूप ले लेते हैं। पहले टॉवर का ढलान तो 26 डिग्री का है इसलिए निर्माण के लिहाज से इसे अब तक के सबसे मुश्किल होटलों में एक माना जाता है। इसकी खासियत केवल यह भी नहीं कि इसे एशिया का सबसे प्रमुखतम व्यावसायिक अड्डा माना जा रहा है। इसकी खासियत यह तो है कि इसके सैंड्स एक्सपो व कनवेंशन सेंटर में 13 लाख वर्गफुट की फ्लेक्सिबल कनवेंशन व एग्जीबिशन जगह है। यानी यहां छोटे-बड़े ढाई सौ मीटिंग या कनवेंशन एक साथ हो सकते हैं। इनमें 45 हजार से ज्यादा लोग एक साथ शिरकत कर सकते हैं और दो हजार से ज्यादा एग्जीबिशन बूथ लगाए जा सकते हैं।
इस कनवेंशन सेंटर का बॉलरूम दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा है जिसमें बैंक्वे किया जाए तो साढ़े छह हजार से ज्यादा और ऑडिटोरियम की तर्ज पर लेक्चर वगैरह किया जाए तो 11 हजार लोग समा सकते हैं। लेकिन केवल इतना नहीं। मैरिना बे सैंड्स की एक खासियत यह भी है कि इसमें आठ लाख वर्ग फुट से ज्यादा जगह दुकानों और खाने-पीने के लिए है। दुकानों में दुनिया की लगभग सभी शीर्ष लग्जरी ब्रांड- बैली, कार्टियर, चेनेल, साल्वातोर फेरागामो, फ्रैंक मुलर, गुच्ची, हर्मिस, हुब्लो, ह्यूगो बॉस, लुई वुइटन, मियु-मियु, ओमेगा, पेटेक फिलिप, प्राडा, टिफेनी, सेंट लॉरें वगैरह शामिल हैं। लेकिन सबसे खास बात शायद यह भी नहीं। खाने की बात करें तो यहां पचास से ज्यादा तरह के विकल्प हैं। एक प्रीमियम फूड कोर्ट के अलावा यहां कई सिग्नेचर रेस्तरां हैं। दरअसल दुनिया के कई दिग्गज शेफ यहां जमा हुए हैं- न्यूयार्क से मारियो बताली, वहीं से डेनियल बुलुड, लॉस एंजेलस से वुल्फगैंग पक, बार्सीलोना से सांती सांतामारिया, पेरिस से गाय सेवॉय, सिडनी से तेत्सुआ वाकुडा, और सिंगापुर से जस्टिन क्वेक। कुजिन के शौकीनों के लिए इससे लजीज बात और क्या हो सकती है। लेकिन मैरिना बे सैंड्स की खास बात कुछ और भी है।

यह भी नहीं कि मैरिना बे सैंड्स सिंगापुर के मनोरंजन व नाइटलाइफ परिदृश्य को एकदम बदल देने वाला है। यहां कमल की आकृति का एक म्यूजियम है जो दुनियाभर से चुनिंदा प्रदर्शनी आयोजित करेगा। चार हजार लोगों की क्षमता वाले दो अत्याधुनिक थियेटर भी हैं जहां हर तरह के आयोजन व कंसर्ट हो सकेंगे। एक खुला इवेंट प्लाजा ठीक मैरिना बे के किनारे है, जो नए किस्म का स्टेज प्रदान करेगा। न्यूयार्क, मियामी व लॉस एंजेलेस के दो मशहूर क्लब मैरिना बे सैंड्स का हिस्सा हैं और ये दोनों क्लब मैरिना बे में समुद्र के पानी पर तैरते रहेंगे। इनमें से एक पेनेजिया अत्याधुनिक मनोरंजन की दुनिया का स्थापित नाम है। पेनेजिया का अल्ट्रा-लाउंज बार एक अंडरवाटर सुरंस से जुड़ा रहेगा और हर रात लगभग पांच सौ लोग यहां पार्टीबाजी कर सकेंगे। यहां दूसरा क्लब एवेलॉन होगा जो हॉलीवुड की शख्सियतों में बहुत लोकप्रिय है। कहा जा रहा है कि कि सिंगापुर आने वाले सेलेब्रिटीज का नंबर वन अड्डा होगा। कसर पूरी करने के लिए यहां विश्व प्रसिद्ध बनयान ट्री श्रृंखला का स्पा भी है। तमाम विवादों के बीच सिंगापुर का महज दूसरा चारमंजिला भव्य कैसिनो भी यहां है, जिसमें 600 से ज्यादा टेबल और डेढ़ हजार से ज्यादा स्लॉट मशीनें हैं। लेकिन बात केवल इतनी नहीं।

इसकी सबसे बड़ी खासियत तो इसका सैंड्स स्काईपार्क है। यह होटल के तीनों टॉवरों की छत पर बैठा एक अनूठा मास्टरपीस है। जमीन से दो सौ मीटर ऊपर 1.2 हेक्टेयर इलाके में बना यह कंक्रीट के रेगिस्तान में नखलिस्तान सरीखा है। तीनों टॉवरों पर मिलाकर बना यह पार्क इतना बड़ा है कि इसकी कुल लंबाई पेरिस के एफिल टॉवर की ऊंचाई से ज्यादा है। यह इतना विशाल है कि इसमें साढ़े चार ए380 जम्बो जेट (दुनिया का सबसे बड़ा हवाई जहाज) एक साथ खड़े किए जा सकते हैं। कुल 12400 वर्ग मीटर का इसका क्षेत्रफल तीन फुटबाल मैदानों के बराबर है। वृत्ताकार नाव जैसी आकृति के इस स्काईपार्क पर तीनों टॉवर से बाहर हवा में निकला दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक कैंटीलीवर है। इस कैंटीलिवर पर बने ऑब्जर्वेशन डेक पर एक साथ सैकड़ों लोग खड़े होकर 57वीं मंजिल से सिंगापुर का चारों तरफ का नजारा ले सकते हैं। इस रोमांचक स्काईपार्क का सबसे बड़ा आकर्षण तो इसका 150 मीटर लंबा इनफिनिटी स्विमिंग पूल है। इनफिनिटी इसलिए कि इसे भीतर की तरफ से देखें तो पानी के पार सिर्फ सिंगापुर की इमारतें नजर आती हैं, मानो तैरते हुए उस किनारे गए तो नीचे जा गिरे। इसे इतनी ऊंचाई पर दुनिया का सबसे लंबा आउटडोर पूल कहा जा रहा है। पूल के किनारे-किनारे शानदार बगीचा है जिसमें ढाई सौ पेड़ व साढ़े छह सौ पौधे लगे हैं। इसके अलावा मन की भूख के आगे पेट की भूख हावी हो जाए तो स्काई ऑन 57 नाम का रेस्तरां भी है।

Monday, August 2, 2010

गार्डन सिटी सिंगापुर

सिंगापुर के मैरिना बे सैंड्स की 57वीं मंजिल पर बने स्काईपार्क के कैंटीलीवर की रेलिंग के सहारे खड़े होकर नीचे देखना रोमांचक था- इस अहसास के साथ कि आपके पैरों के नीचे छत है और उसके नीचे दो सौ मीटर तक कुछ नहीं। एवरेस्ट की आधी ऊंचाई वाले बर्फीले पर्वत नाप लेने के बाद भी सतह से इतना ऊंचे जाने का अपने लिए यह पहला मौका था। नीचे चीटियों से चलते वाहन। दुनिया का सबसे बड़ा ऑब्जर्वेशन व्हील सिंगापुर फ्लायर (लंदन आई से भी बड़ा) भी वहां से बौना लग रहा था। चूंकि वहां से चारों तरफ निगाहें घुमाकर सिंगापुर को निहारा जा सकता था, इसलिए जब दूसरी तरफ देखा तो मैरिना बे के किनारे सिंगापुर की बिजनेस डिस्ट्रिक्ट की ऊंची-ऊंची इमारतें खड़ी थीं।


सिंगापुर की वही छवि तस्वीरों में सबसे ज्यादा देखी जाती रही है- एक-दूसरे से होड़ लगाती आसमान छूती इमारतें। यह शहर-देश आज दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं में से है। उसने वह सब हासिल किया जो प्राकृतिक रूप से उसके पास नहीं था। उसने हर चीज कृत्रिम रूप से खड़ी की। लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि उसने हर उस चीज को भी बहुत कायदे से सहेजकर रखा जो थोड़ी-बहुत उसे प्रकृति की निधि से मिली थी। यही वजह है कि जिस सिंगापुर की छवि एक कंक्रीट के जंगल की हमारे मन में है, वह दरअसल गार्डन सिटी के तौर पर जाना जाता है। इसलिए उस दिन मैरिना बे सैंड्स के स्काईपार्क पर जमीन से दो सौ मीटर ऊंचे खड़े होकर जितना भी अजूबा महसूस हुआ हो, उसकी तुलना उस खुशनुमा अहसास से नहीं की जा सकती जो अगले दिन सिंगापुर के नेशनल ऑर्किड गार्डन में जाकर हुआ। भारत में किसी 55 मंजिला इमारत की कमी महसूस हुई हो या नहीं, लेकिन एक कायदे के बोटैनिकल गार्डन की कमी जरूर महसूस हुई। प्रकृति ने हमें भरपूर दिया है, सिंगापुर से हजारों-लाखों गुना ज्यादा दिया होगा लेकिन जो मिला उसकी कद्र करने के मामले में हम सिंगापुर जैसे छोटे देश से बहुत पीछे हैं। आखिर एक प्रतिबद्धता और ठोस योजना के बिना यह कैसे मुमकिन है।
कैसा संयोग था, ऑर्किड गार्डन में एक सेलेब्रिटी गार्डन भी है, जहां आम तौर पर सिंगापुर आने वाले सेलेब्रिटीज के नाम पर ऑर्किड रखे जाते हैं। सबसे पहले लेडी डायना का नजर आया। मुझे पता था कि उस गार्डन में हमारे बॉलीवुड के दोनों शहंशाहों- अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान के नाम पर भी ऑर्किड रखे गए थे। मैंने उन्हें देखने की इच्छा जाहिर की तो हमारे साथ चल रहे बोटैनिकल गार्डन के अधिकारी ने बताया कि उन दोनों ऑर्किड की किस्मों ने फूल देना बंद कर दिया था, इसलिए हमने उन्हें यहां से हटा दिया। हमारे अपने देश में भी तो बगीचों ने ऐसे ही फूल देने बंद कर दिए हैं। वरना गार्डन सिटी कहलाए जाने वाले चंडीगढ़ और बंगलोर जैसे शहर तो हमारे यहां भी हैं।

सिंगापुर का 50 फीसदी हिस्सा हरियाली से आच्छादित है। इस द्वीप देश में जमीन की सीमा के बावजूद दस फीसदी हिस्सा पार्र्को और प्राकृतिक रिजर्व के लिए सुरक्षित है। देश के निर्माण के शुरुआती सालों में ही गार्डन सिटी के तौर पर उसकी परिकल्पना कर ली गई थी। 1967 में जब सिंगापुर में पार्र्को और पेड़ों के लिए अलग प्रशासनिक इकाई बनी तो एक साल के भीतर 50 किस्मों के 15 हजार पेड़ और अगले पांच सालों में दस लाख पेड़-पौधे देशभर में लगाए गए। उसमें किसी तरह का हेरफेर न हुआ, न योजना के स्तर पर, न प्रशासन के स्तर पर, न प्रतिबद्धता के स्तर पर, न संसाधनों के स्तर पर और न ही लोगों के सोच के स्तर पर। यही वजह थी कि मैरिना बे सैंड्स की 57वीं मंजिल पर बने स्काईपार्क में ढाई सौ से ज्यादा पेड़ और साढ़े छह सौ से ज्यादा पौधों का बगीचा लगा था। सिंगापुर ने पार्र्को को न केवल सहेजा बल्कि उन्हें सुंदर बनाया, सजाया और कलाकृतियों का रूप दिया। लोगों को उनसे जोड़ने और उनमें लोगों का आकर्षण बनाए रखने के लिए नित नए तरीके खोजे। अब इस सारी कवायद को अगले स्तर पर ले जाकर सिंगापुर को गार्डन सिटी के बजाय सिटी इन ए गार्डन बनाए जाने की योजना है जिसमें पूरे द्वीप को एक विशाल ट्रॉपिकल गार्डन में तब्दील कर दिया जाएगा और उसका सारा शहरी ढांचा उस बगीचे में घोसलों सरीखा होगा। प्रकृति से दोस्ती यहां की संस्कृति में है। यहां के सारे पार्र्को व सड़कों की हरियाली का जिम्मा उठाने वाले नेशनल पा‌र्क्स बोर्ड में महज आठ सौ कर्मचारी हैं, लेकिन कहीं कोई कमी नजर नहींआती। रखरखाव किस तरह किया जाता है, इसका उदाहरण देखिए कि एक तय उम्र से ज्यादा पार कर चुके पेड़ों को हेरिटेज ट्री मान लिया जाता है और उनकी खास देखभाल की जाती है। ज्यादा ऊंचे पेड़ों को आकाशीय बिजली से बचाने के लिए अर्रि्थग का इंतजाम है, और वह ऐसा है कि बोर्ड के पास इस बात का पूरा रिकॉर्ड है कि किस पेड़ पर कितनी बार बिजली गिरी।

लिहाजा सिंगापुर को केवल उसके बगीचों के लिए भी देखने जाया जा सकता है। सिंगापुर में पार्क कनेक्टर नेटवर्क के जरिये सारे पार्र्को और नेचर रिजर्र्वो को जोड़ा जा रहा है। सौ किलोमीटर का पार्क कनेक्टर तैयार हो चुक है और इसे 2013 तक तीन सौ किलोमीटर कर दिया जाना है। एक डेढ़ सौ किलोमीटर का पूरे द्वीप का चक्कर लगाने वाला रूट भी तैयार हो रहा है। सिंगापुर में चार नेचुरल रिजर्व हैं- बुकित तिमाह, सेंट्रल कैचमेंट, सुंगेई बुलोह वेटलैंड रिजर्व और लैब्रेडोर नेचर रिजर्व। सुंगेई बुलोह प्रवासी पक्षियों का प्रमुख स्थान है। सेंट्रल कैचमेंट रिजर्व में सिंगापुर का पहला ट्री-टॉप वॉक स्थित है, जिसमें जंगल को ऊपर से देखने के लिए ढाई सौ मीटर लंबा झूलता पुल भी है। यहां कई दुर्लभ पेड़ों के अलावा कई अनूठे पक्षी और रेप्टाइल भी हैं- जिनमें ब्लैक-बीयर्डेड ड्रैगन और क्लाउडेड मॉनीटर शामिल हैं। चेक जावा वेटलैंड इस मामले में अनूठा है कि यहां कई इकोसिस्टम एक साथ देखे जा सकते हैं- रेतीला तट, पथरीला तट, सीग्रास लैगून, कोरल रबल, मैंग्रूव व तटीय जंगल।

सिंगापुर बोटैनिकल गार्डन 63.7 हेक्टेयर में फैला है। 1859 में बने इस बोटैनिकल गार्डन में दस हजार से ज्यादा किस्म के पेड़ हैं। दक्षिण एशिया में बागवानी पर अध्ययन, अनुसंधान व संरक्षण का भी यह बहुत बड़ा केंद्र हैं। हर साल तीस लाख लोग इस गार्डन को देखने आते हैं। 2008 में टाइम मैगजीन ने इसे एशिया का सर्वश्रेष्ठ शहरी जंगल आंका था। इसी के बीचोंबीच सिंगापुर का नेशनल ऑर्किड गार्डन है, जिसे वाकई सिंगापुर का कोहिनूर कहा जा सकता है। ऑर्किड सिंगापुर का राष्ट्रीय फूल भी है। तीन हेक्टेयर में फैले इस गार्डन में साठ हजार से ज्यादा रंग बिखेरते पौधे हैं। यह ट्रॉपिकल ऑर्किड का दुनिया का सबसे बड़ा संग्रह माना जाता है। यहां ऑर्किड चार मौसमों के हिसाब से अलग-अलग वातावरण में रखे गए हैं। जाहिर है, हर मौसम के फूलों के रंग भी अलग हैं। इस गार्डन को देखने का अनुभव वाकई अद्भुत है।

फोर्ट कैनिंग व ईस्ट कोस्ट पार्क भी देखने लायक हैं। देखने लायक होगा 111 हेक्टेयर में मैरिना बे पर बन रहा गार्डन बाय द बे भी जो अगले साल शुरू हो जाएगा। सिंगापुर में कई पार्क हैं। हरियाली को लेकर उसका प्रेम वहां की व्यस्ततम कमर्शियल सड़क ऑर्चर्ड रोड पर घूमते हुए भी आपको दिख जाएगा।

Wednesday, May 5, 2010

चंद्रखनी पास- कुदरत से रू-ब-रू

ट्रैकिंग के कुछ बड़े शानदार फायदे हैं। एक तो रोमांच मिलता है। दूसरा आप वो सारी जगहें देख सकते हैं, जो आम सैलानी देख नहीं पाता या देखने की कल्पना भी नहीं कर पाता। और, तीसरा आप कम खर्च में घूमना कर लेते हैं क्योंकि जिन्हें ट्रैकिंग पसंद है, वे ज्यादा सुविधाओं की परवाह नहीं करते




कुल्लू-पार्वती घाटी को ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए स्वर्ग माना जाता है। हवाई जहाज से कुल्लू-मनाली जाने के लिए कुल्लू से दस किलोमीटर पहले भुंतर में हवाई अड्डा है। इसी भुंतर में व्यास व पार्वती नदियों का संगम भी है। व्यास नदी रोहतांग दर्रे पर स्थित व्यास कुंड से नीचे बहती हुई आती है और पार्वती नदी पिन-पार्वती दर्रे के पास स्थित पार्वती ग्लेशियर से निकलती है और खीरगंगा व मणिकर्ण होती हुई भुंतर में व्यास नदी से आकर मिल जाती है। पार्वती नदी की इस घाटी में ही नदी के दोनों ओर की पहाडि़यां ट्रैकिंग के शौकीनों को बार-बार लुभाती रहती हैं। इस घाटी में ट्रैकिंग के रास्तों की कमी नहीं, आप चाहे जिधर निकल जाएं, प्रकृति की कलाकारी से मुग्ध हो जाएंगे। बढि़या बात यह है कि इनमें कई ट्रैक ऐसे हैं जो कम जोखिम वाले हैं। आप पहली बार भी उन रास्तों पर जाएं तो थोड़ी सावधानी और थोड़े गाइडेंस से उनका मजा लूट सकते हैं। अछूती प्रकृति व संस्कृति का यह नजारा और कही नहीं मिलेगा।

चंद्रखनी दर्रा कुल्लू-पार्वती घाटी के सबसे लोकप्रिय ट्रैक में से एक माना जाता है। आम तौर पर सारे हिमालयी ट्रैकिंग रास्ते किसी न किसी दर्रे तक लेकर जाते हैं। दर्रा आम तौर पर दो घाटियों या दो चोटियों या दो पहाडि़यों से गुजरने वाले किसी रास्ते को कहते हैं। हिमालयी दर्रे ट्रैकर्स के पसंदीदा इसलिए भी होते हैं क्योंकि एक तो बिना किसी चोटी को छुए ऊंचाई का अहसास कराते हैं और दर्रे पर पहुंचकर आप दोनों तरफ के नजारे ले सकते हैं। दर्रो का ढलान विशेष आकर्षण पैदा करता है और ढलानों पर बर्फ जमी हो तो फिसलने या स्केटिंग करने का मन खुद-ब-खुद हो जाता है। ट्रैकिंग करते हुए रास्ता इस तरह से बनाया जाता है कि या तो आप दर्रे को छूकर वापस अपने शुरुआती स्थान पर लौट आएं या फिर दर्रे को पार करके किसी दूसरे स्थान पर पहुंच जाएं।

चंद्रखनी दर्रे को उसका नाम चंद्रमा जैसे आकार की वजह से मिला है। समुद्र तल से 3541 मीटर (एवरेस्ट की ऊंचाई 8848 मीटर है) की ऊंचाई पर स्थित यह दर्रा सड़क रास्ते के सबसे नजदीकी दर्रो में से है, इसलिए भी पसंदीदा है। कोई चाहे तो कुल्लू पहुंचकर केवल तीन दिन में चंद्रखनी दर्रा पार करके फिर कुल्लू पहुंच सकता है। यह आपपर और आप किसके सौजन्य से जा रहे हैं, उस पर निर्भर करता है कि उसने चंद्रखनी जाने के लिए क्या रास्ता चुना है। लेकिन जब जाएं तो यह बात ध्यान में रखें कि उन रास्तों पर बार-बार जाने का मौका नहीं मिलता। वहां पहुंचकर जो प्रकृति का नजारा देखने को मिलता है, उसके बारे में लौटकर जब आप अपने करीबियों को बताएंगे तो वे आपसे रश्क करेंगे।

यू देखें तो चंद्रखनी दर्रा कुल्लू के पास नगर (जहां रूसी चित्रकार रोरिख की विश्वप्रसिद्ध गैलरी है) के ठीक ऊपर स्थित पहाड़ी पर है। नगर से आप तीन किलोमीटर की चढ़ाई करके रुमसू गांव (2135 मीटर) पहुंच सकते हैं। अगले दिन वहां से चंद्रखनी दर्रे के लिए चढ़ाई की जा सकती है। किसी भी दर्रे को पार करते हुए यह ध्यान में रखें कि वहां दिन चढ़ते रुके नहीं। दोपहर बाद आम तौर पर सभी हिमालयी दर्रो पर मौसम खराब होने लगता है। यह दर्रो की प्रकृति से जुड़ा है। इसलिए ट्रैकिंग का नियम यही है कि जिस दिन दर्रा पार करना हो तो तड़के जल्दी कैंप से निकलें और दर्रे पर पहुंचें। वहां तसल्ली से वक्त बिताएं मजा लें और दोपहर चढ़ने से पहले नीचे उतर लें।

चंद्रखनी से नीचे उतरने के कई विकल्प हैं। चाहें तो वापस रुमसू के रास्ते नगर आ सकते हैं। या दर्रा पार करके मलाना गांव तक नीचे उतर सकते हैं। पार्वती घाटी में जाने का एक बड़ा आकर्षण मलाना गांव को देखने का भी होता है। अपनी अनूठी शासन परंपरा और संस्कृति के कारण मलाना दुनियाभर में प्रसिद्ध है। आठ हजार फुट से ज्यादा ऊंचाई पर स्थित इस गांव में पहुंचने का ट्रैकिंग का सिवाय कोई अन्य जरिया नहीं (इस गांव के बारे में विस्तार से फिर कभी)।

मलाना से नीचे आने के लिए भी दो रास्ते हैं। या तो आप सीधे-सीधे मलाना नाले के साथ-साथ नीचे मणिकर्ण-भुंतर मार्ग पर स्थित जरी तक उतर सकते हैं। मलाना के बाशिंदे इसी रास्ते का इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन यह ढलान बहुत सीधा है और मुश्किल भी। इसलिए अगर दो दिन का समय हो तो मलाना से छोटा ग्राहण (3355 मी), खिकसा थाच (3660 मी) और मलाना ग्लेशियर (3840 मी) होते हुए नीचे आया जा सकता है। छोटा ग्राहण से सीधे नगरूनी होकर भी नीचे आया जा सकता है। तीसरे विकल्प में मलाना गांव से रसोल गांव और रसोल जोत (दस हजार फुट की ऊंचाई पर) पार करके नीचे कसोल तक उतरा जा सकता है। लेकिन वापस अगर नगर उतरना हो तो उसके लिए भी चंद्रखनी से फोडिल थाच, चकलानी थाच और चक्की नाला होते हुए नगर उतरा जा सकता है। लेकिन इस बात पर शर्त लगाई जा सकती है कि हर रास्ता कुदरत के खूबसूरत नजारों से भरपूर है। अली रत्नी टिब्बा, इंद्रासन व देव टिब्बा चोटियों का मनोहारी दृश्य देखने को मिलता है। पार्वती घाटी का समूचा इलाका ही अपने आपमें बेहद सुंदर है।



खास बातें

- यकीनन ट्रैकिंग में रोमांच कम नहीं, लेकिन उसमें उतना कष्ट या जोखिम भी नहीं जो आम तौर पर पर्वतारोहण में होता है। पर्वतारोहण की तमाम तैयारियों व उपकरणों आदि से जुड़े झंझटों से आप मुक्त रहते हैं।

- लेकिन ट्रैकिंग का मतलब अपनी जरूरत के सामान को हमेशा अपने साथ रकसैक में लेकर चलना होता है। कैंपिंग व खाने-पीने का इतजाम भी अहम होता है। अपने दम पर ट्रैकिंग कर रहे हैं तो इन सारी चीजों के लिए पोर्टर व सहायक चाहिए होंगे। वैसे आजकल कई टूर ऑपरेटर इस तरह के ट्रैकिंग कार्यक्रम आयोजित करते हैं। सस्ते विकल्प में यूथ होस्टल्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के हिमालयन ट्रैकिंग कार्यक्रमों में भी शिरकत की जा सकती है।

- पहाड़ी रास्ते, खास तौर पर बर्फीले रास्ते नए लोगों के लिए भटकाऊ हो सकते हैं। इसलिए इन रास्तों पर हमेशा एक स्थानीय गाइड साथ रखें।

- यहां जाने का सबसे बढि़या समय मई से जून और फिर मानसून खत्म होने के बाद सितंबर-अक्टूबर में है। लेकिन बर्फ का मजा लेना हो तो मई में जितना जल्दी जा सकें बेहतर। चंद्रखनी के अलावा सार पास, जालोरी पास, पीन पार्बती पास के ट्रैक भी इस घाटी में किए जा सकते हैं।

Friday, April 2, 2010

गॉल : खूबसूरती का अनंत विस्तार

मोती सरीखे श्रीलंका के दक्षिणी सिरे पर स्थित गॉल को कई लोग गोवा और मालदीव की खूबसूरती का मिला-जुला रूप मानते हैं। नीला समुद्र यहां मानो अंनत तक फैला है


कैंडी से गॉल का रास्ता गोवा की याद दिलाता है, मानो आप मडगाव से पणजी जा रहे हों। ओल्ड गोवा जैसे ही खुले-खुले, फूलों से लकदक घर। बनावट भी वैसी ही। नारियल व रबर के विशाल बगीचे। आगे चलें तो एक तरफ हरियाली और दूसरी तरफ पछाड़ मारता समुद्र। लोग भी अपने देश जैसे ही लगते हैं- वैसा ही रंग-रूप, उसी तरह खुशमिजाज और मिलनसार। हमारी तरह ही गांवों में लगते हाट। आगे जाकर कैंडी से गॉल का रास्ता कोलंबो-गॉल हाइवे में मिल जाता है जो पूरा हिंद महासागर के किनारे-किनारेहै। कैंडी श्रीलंका का दिल है, खूबसूरती और भूगोल दोनों में। वहीं गॉल श्रीलंका चरम है- खूबसूरती और भूगोल दोनों में। गॉल श्रीलंका के सबसे निचले सिरे पर स्थित है, थोड़ा पश्चिम की तरफ।

हम हिंदुस्तानी गॉल को उसके क्रिकेट स्टेडियम के लिए बहुत जानते हैं। स्टेडियम है भी बहुत शानदार- एक तरफ गॉल शहर, पैवेलियन के ठीक सामने गॉल फोर्ट और बाईं तरफ समुद्र। गॉल का स्टेडियम 2004 में आई सुनामी विभीषिका और उसके बाद मानवीय इच्छाशक्ति की जीत का सबसे बेहतरीन नमूनों में से एक है। इसलिए यह बिलकुल दुरुस्त ही था कि गॉल पहुंचकर हमें पहली झलक वहां के क्रिकेट स्टेडियम की मिले, जो दो दिन बाद शुरू हो रहे टेस्ट मैच के लिए खुद को तैयार कर रहा था। गॉल फोर्ट के क्लॉक टॉवर के नीचे खड़े होकर सामने स्टेडियम को देखना बहुत विस्मयकारी था। पुर्तगालियों और डच के आधिपत्य में तीन तरफ से समुद्र से घिरे गॉल फोर्ट को बसाया गया था। फोर्ट के भीतर आज भी ज्यादातर इमारतें सैकड़ों साल पुराने इतिहास की झलक दिखाती हैं। वहां घूमते हुए लगता है, मानो किसी पुराने यूरोपीय शहर में घूम रहे हों। ऊंचे दरवाजे, बड़ी-बड़ी खिड़कियां, खुले दालान, खालिस यूरोपीय शैली की बनावट- हर चीज में, चाहे वह चर्च हो या मसजिद या होटल या कचहरी। क्लॉक टॉवर से किले की दीवार पर चलते-चलते, पुरानी जेल के ऊपर से एक तरफ पुराने शहर और दूसरी तरफ समुद्र को निहारते-निहारते लाइट हाउस तक जाने में अलग ही रूमानियत है। किले की दीवार के ठीक साथ समुद्र गहरा है, यहां किला बनाने की यही वजह रही होगी। हालांकि कुछ स्थानों पर नीचे उतरने की सीढि़यां भी हैं। बीच-बीच में बुर्ज पर कई स्थानीय लड़के सैलानियों से सिक्के नीचे समुद्र में फेंकने का अनुरोध करते नजर आते हैं। सिक्के के पीछे-पीछे वे भी समुद्र में छलांग लगा देते हैं और पानी से निकाल कर लाया गया सिक्का उनका इनाम हो जाता है।

गॉल के डच फोर्ट के भीतर पुराने शहर में घूमते हुए आप लिन बान स्ट्रीट पर जाएं तो वहां एक आर्ट गैलरी है। जिस इमारत में यह गैलरी है वह 1763 की बनी हुई है और उसे फोर्ट सिटी की सबसे पुरानी इमारतों में से एक माना जाता है। इमारत खंडहर में तब्दील हो चुकी थी लेकिन इसके मौजूदा मालिक अल-हज एम.एच.ए. गफ्फार ने इसे इसकी पुरानी रौनक लौटा दी- वही पुराना शिल्प, रंग, मिट्टी और मूंगे का मिश्रण। उसी तरह का लकड़ी का काम। यहां तक कि बीच दालान में उस जमाने का एक कुआं भी उसी तरह से फिर से खुदाई करके चूनामिट्टी व मूंगे से बना दिया गया है। लेकिन इस इमारत की सबसे खास बात इसका संग्रहालय है जिसमें पुर्तगालियों, अंग्रेजों और डच लोगों के समय की कई दुर्लभ व एंटीक वस्तुएं संग्रहीत की गई हैं। इनमें जेवरात, बर्तन, सिक्के, हथियार, कैमरे, झाड़-फानूस और न जाने क्या-क्या शामिल है। ये सारी चीजें अलग-अलग जगहों से जुटाई गई हैं और इनमें से कुछ तो गहरे सागर में खोजकर निकाले गए किसी जमाने के डूबे जहाजों से निकले सामान भी हैं। कई चीजें वाकई हैरान कर देने वाली है और सबसे हैरान कर देने वाली बात तो यह है कि यह सारी कवायद उसी एक व्यक्ति ने की है। कई कमरों में चारों तरफ लगी बड़ी अल्मारियों में सहेज कर रखी ये सारी बेशकीमती चीजें उसकी अपनी संपत्ति है। चीजें इतनी पुरानी और दुर्लभ हैं कि उनकी कीमत तक आंकना मुमकिन नहीं।

मुख्य शहर बहुत छोटा है। शहर के दोनों तरफ यानी कोलंबो से आते हुए और आगे मटारा या डोंड्रा जाते हुए गॉल की सबसे शानदार होटले हैं। गॉल से आगे निकल जाएं तो बगल में टैम्प्रोबेन आईलैंड छोड़ते और मिरिसा होते हुए मातेरा पहुंचा जा सकता है। वहां का स्टार फोर्ट बहुत छोटा सा लेकिन डच शिल्प का बढि़या नमूना है। फोर्ट सितारे के आकार में बना है। फोर्ट के चारों और पानी भरा है और जाने का सिर्फ एक पुल है जिसे फोर्ट से ही समेटा भी जा सकता है। यह किला कम और सरकारी नुमाइंदों का निवास ज्यादा रहा होगा या फिर हद से हद कोई चौकी। अभी तो उसकी पहरेदारी अकेला एक छोटा सा मगरमच्छ कर रहा था जो पानी में एक चट्टान पर हमें सुस्ताता मिला। मातेरा से और आगे निकल जाएं तो डोंड्रा हेड पहुंच जाएंगे जो श्रीलंका का दक्षिणी छोर है। यहां बना हुआ लाइटहाउस श्रीलंका के सबसे बड़े लाइटहाउसों में से एक है। उसी के साथ बने लैगून को देखते हुए थाईलैंड के लैगून याद आ जाते हैं। चट्टानों की श्रृंखला समुद्र की लहरों को तोड़ देती है और लैगून का पानी शांत बना रहता है। उन चट्टानों से टकराकर गुस्सैल लहरें कई मीटर तक ऊपर उठ जाती हैं। कई मर्तबा यह पानी बेहद शानदार दृश्य रचता है। श्रीलंका के इस दक्षिणी-पश्चिमी सिरे पर मौजूद सारे तट सैलानियों के बीच खासे लोकप्रिय हैं और सालभर कई गतिविधियों का केंद्र बने रहते हैं। डोंड्रा हेड के निकट ही बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा भी है जो श्रीलंका की सबसे ऊंची बुद्ध प्रतिमाओं में से एक मानी जाती है। गॉल में रहें और रोज अगल-बगल कहीं मौज-मस्ती के लिए निकल जाएं। यहां से याला के जंगली जानवरों से मुलाकात करने भी जाया जा सकता है। गॉल से ही डोंड्रा जाएं तो समुद्र में व्हेल व डॉल्फिनों के नजारे देखे जा सकते हैं (देखें इनसेट)।

इसके अलावा चाहें तो बुंदाला में बर्ड वाचिंग की जा सकती है, हियारे व कान्नेलिया के जंगलों में सैर के लिए जा सकते हैं, कोट्टावा व रूमास्साला में नेचर वाक हो सकती है, कोग्गला या गिनगंगा तक नावों पर सैर की जा सकती है, या और भी कई तरह के अनुभव लिए जा सकते हैं। अलग-अलग बीचों, जैसे कि हाइकादुवा या बेंटोटा पर वाटर स्पो‌र्ट्स का भी मजा लिया जा सकता है। हाइकादुवा के पास समुद्र में बेहद शानदार मूंगा चट्टानें हैं जिन्हें पानी के नीचे गोता लगाकर देखने के लिए भी कई सैलानी आते हैं।

बेमिसाल नजारे

होटल के कमरे की बालकनी में आकर बैठे तो सामने सागर हिलोरे मारता दिखाई देता है, इतना नजदीक मानो छू लें। लहरों से उछलते पानी की नमी आप महसूस कर सकते हैं। समुद्र की जो खूबसूरती यहां देखने को मिलती है, उसी की वजह से इसे मालदीव की टक्कर का माना जाता है। कोलंबो से गॉल हाइवे पर जितनी भी होटलें हैं, सब समुद्र की ओर हैं। ताज समुद्र से लेकर लाइटहाउस व फोट्र्रेस तक श्रीलंका की कई सबसे शानदार होटलें हिंद महासागर के किनारे हैं। यानी इन सारी होटलों का एक सिरा लगातार लहरों से खेलता रहता है। जाहिर है कि इनके स्वीमिंग पूल भी सागर के पानी से छूते से हैं। यानी आप पूल में हों तो आपको एक नजर में पता नहीं चलेगा कि कहां पूल खत्म हो रहा है और कहां सागर शुरू हो रहा है। यही एंडलेस स्वीमिंग पूल की कल्पना है।


लेकिन श्रीलंका के इस हिस्से की एक और खास बात है, जो दुनिया में कहीं और दिखाई नहीं देती, और वो है गॉल के स्टिल्ट फिशरमैन यानी वे मछुआरे जो समुद्र में खड़े बांस पर बैठकर मछली पकड़ते हैं। रेत या मूंगा चट्टानों में गाड़ा गया लंबा सा बांस, उस पर बीच में जुड़ा एक लकड़ी का फट्टा (इसे यहां पेट्टा कहा जाता है) बैठने के लिए और साथ ही में एक हुक पर टंकी टोकरी, मछली डालने के लिए। बगल में एक झोला, अपने जरूरत के सामान के लिए। ये मछुआरे सूर्योदय व फिर सूर्यास्त के समय घंटों इस बांस पर बैठे रहते हैं, कि कोई बड़ी मछली आकर कांटे में फंस जाए। इस इलाके के मछुआरा समुदाय की यह पुरानी परंपरा रही है। हालांकि यह कब व कैसे शुरू हुई, यह कोई ठीक-ठीक नहीं जानता। कुछ लोग बताते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद कुछ मछुआरों ने इस तरीके का सबसे पहली बार इस्तेमाल किया जो बाद में परंपरा का हिस्सा बन गया। पांच साल पहले आई सुनामी के बाद इनकी संख्या कम होने लगी थी, लेकिन परंपरा को जिंदा रखने की कोशिश में फिर से ये लोग नजर आने लग गए हैं। बावले समुद्र में इस असहज से बांस पर बैठकर हाथ में कांटा थामे मछली पकड़ने की कवायद बड़ा हैरान करने वाली लगती है। भोर होने पर होटल के पीछे समुद्र के किनारे-किनारे टहलने निकला तो इन मछुआरों की पहली झलक हैरान करने वाली थी। जिस सहजता से वह अपने झोले से बीड़ी निकालकर पी रहा था, वो देखकर एकबारगी यकीन नहीं होता था क्योंकि वे लोग तट से थोड़ी दूर पानी में थे। ये मछुआरे इस तरह कितनी मछली पकड़ते होंगे और उससे कितना पेट अपना और घर वालों का भरते होंगे, अनुमान लगाना बहुत मुश्किल नहीं था। लेकिन इतने कष्ट उठाकर भी एक परंपरा को ये लोग जिंदा रखे हैं। गॉल व आसपास के इलाके, खास तौर पर कठालुवा और अहंगामा कस्बों में ऐसे मछुआरों के पांच सौ परिवार बताए जाते हैं। यह महज पारिवारिक व्यवसाय है जो एक पीढ़ी से दूसरी को मिलता रहता है। लेकिन अब यह सैलानियों के लिए भी बड़ा आकर्षण है।

विशालकाय व्हेल का रोमांच

श्रीलंका को बेलीन व्हेल देखने के लिए सबसे उम्दा जगहों में से एक माना गया है। पिछले कई साल गृहयुद्ध की भेंट चढ़ने से सैलानी इस मौके से वंचित रहे हैं, लेकिन अब माहौल शांत है। हर साल नवंबर से अप्रैल का समय व्हेल देखने के लिए सबसे उपयुक्त माना गया है। श्रीलंका का पूर्वी तट इसके लिए सबसे उपयुक्त है। इन महीनों में व्हेल दक्षिणी सिरे से बंगाल की खाड़ी की ओर जाती हैं। सबसे ज्यादा गतिविधि दिसंबर व जनवरी के महीनों में होती है। इन दिनों समुद्र भी अपेक्षाकृत शांत होता है, इसलिए व्हेल तट के नजदीक ही दिख जाती हैं। वहीं अप्रैल में ये व्हेल मछलियां पश्चिम में मालदीव की ओर चली जाती हैं। इस किस्म की व्हेलों का घनत्व श्रीलंकाई समुद्र में दुनिया में सबसे ज्यादा में से एक है। यहां दुनिया का सबसे बड़ा स्तनपायी ब्लू व्हेल है, जो 30 मीटर तक लंबी और सौ टन वजन तक पहुंच जाती है। फिर फिन व्हेल, हंपबैक व्हेल, मिंक व्हेल वगैरह भी हैं। व्हेल के अलावा स्पिनर डॉलफिनों की संख्या भी यहां खासी है। याला के दक्षिण-पूर्वी तट पर मन्नार की खाड़ी से लेकर त्रिंकोमाली तक इन्हें देखा जा सकता है। व्हेलों की समझदारी, उनकी आवाजों, उनके भोजन, व्यवहार आदि को लेकर कई शोध दुनियाभर में होते आए हैं और उनसे अलग-अलग किस्म की व्हेलों के बारे में कई रोचक जानकारी मिलती है। उनको अपनी आंखों से देखना एक दुर्लभ अनुभव है। श्रीलंका के जाने-माने वाइल्डलाइफ फोटोग्राफर गेहान डीसिल्वा विजेरत्ने कहते हैं कि श्रीलंका में मिरिसा व डोंड्रा हेड के बीच ब्लू व स्पर्म व्हेल देखना याला में तेंदुआ देखने से ज्यादा आसान है। डोंड्रा हेड श्रीलंका का सबसे दक्षिणी सिरा है और गॉल से वहां जाएं तो बीच में मिरिसा पड़ता है। यानी अगर आप गॉल को बेस बनाएं तो व्हेल घूमने का कार्यक्रम बना सकते हैं।

Wednesday, February 17, 2010

मालदीव- जन्नत है यहां

हम माले के अहमदी बाजार में राजधानी की सबसे बडी एंटीक व सोवेनियर दुकान में थे। सारे सेल्समैन मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद नाशीद द्वारा एक दिन पहले कोपेनहेगन में विश्व जलवायु सम्मेलन में दिए गए भाषण को बडे ध्यान से सुन रहे थे। ईमानदारी से कहूं तो मैंने किसी हिंदुस्तानी को राष्ट्रपतियों या प्रधानमंत्री के भाषणों को इतने ध्यान से सुनते नहीं देखा। लेकिन जब इस धरती की एक नायाब रचना के अस्तित्व का ही सवाल हो तो, इतनी गंभीरता लाजिमी ही थी। कई लोगों ने अक्टूबर में मालदीव की कैबिनेट द्वारा पानी के अंदर की गई बैठक को भले ही टोटका समझा हो, लेकिन मालदीव जाकर लगता है कि अगर प्रकृति का कोप इसे हमसे छीन ले तो दुनिया कितनी दरिद्र हो जाएगी। वहां की सुंदरता में कुछ ऐसा ही खास है। उस छोटे से देश में मानो इतनी खूबसूरती समाती नहीं।



बाजार की उस सैर से वापस अपने क्रूज पर जाने के लिए जेट्टी की तरफ लौटते हुए, जब निगाहें बरबस सडक के साथ-साथ चलते समंदर के पानी में गईं तो अहसास हुआ कि यहां के लोग इस खूबसूरती की कीमत किस हद तक समझते हैं। पानी इतना साफ था कि लैंपपोस्ट की रोशनी में नीचे कई मीटर गहराई में तैरती मछलियां अपने सारे रंगों के साथ दिखाई दे रही थीं। यह समंदर का वो हिस्सा था जो शहर से एकदम सटा हुआ था। आप भारत के किसी शहर से सटे हुए समुद्र या नदी के पानी में कुछ सेंटीमीटर भी साफ देख सकें तो खुद को खुशकिस्मत पाएंगे। एमवी एक्वामैरिन पर लौटते हुए माले में बिताए हुए शाम के दो घंटे जेहन में घूम रहे थे। कोरल रीफ (मूंगा चट्टानें) यहां का जीवन हैं। यहां तक की आपको कब्रों पर लगे पत्थरों पर भी मूंगा चट्टानें मिल जाएंगी। राष्ट्रपति नाशीद का भाषण सुनने से कुछ ही देर पहले हम उनके सरकारी आवास के बाहर खडे थे। यकीन नहीं होता था कि हम किसी देश की सर्वोच्च शख्सियत के आवास के आगे थे, दूर-दूर तक कोई सुरक्षाकर्मी नहीं था। मजे से हम उसके बंगले के दरवाजे से अंदर हाथ बढाकर महज पचास मीटर दूर बगीचे व बरामदे के फोटो खींच रहे थे। क्या आप भारत में किसी अदने से नेता के घर के बारे में ऐसा सोच सकते हैं? पता तो यह भी चला कि राष्ट्रपति कभी-कभार पैदल ही सडकें पार करते हुए दो ब्लॉक आगे अपने दफ्तर में पहुंच जाते हैं। मालदीव के बारे में हर बात अभिभूत करने वाली थी। इसीलिए मुझे अगले दिन का बेसब्री से इंतजार था। इल्हाम था कि वह दिन खास होने वाला था।

सवेरे क्रूज से एक नाव हमें एयरपोर्ट आईलैंड लेकर आई। वहां से हम रनवे का चक्कर काटते हुए पहुंचे ट्रांस मालदीवियन के बेस पर। पिछली शाम जब क्रूज माले के निकट पहुंच रहा था तो हमने ऊपर से गुजर रहे सी प्लेन को तुरंत पहचान लिया। इतनी तस्वीरें जो देखी थी, उसकी। लेकिन तब गुमान न था कि अगले दिन उसमें सवारी का मौका मिलेगा। ट्रांस मालदीवियन के सी प्लेन से हम एक सौ पांच किमी दूर रंगाली द्वीप जाने वाले थे। लगभग हजार मीटर की ऊंचाई तक उडने वाले सी प्लेन से मालदीव के समुद्र में फैले पडे सैकडों रिजॉर्ट व कोरल द्वीपों को देखना अविस्मरणीय था। पानी की यह खूबसूरती कहीं और नहीं मिलेगी। रोमांच व उत्साह से सांसें थाम देने वाली उडान थी वह। लेकिन रंगाली द्वीप पर हिल्टन होटल्स के कोनराड रिजॉर्ट पहुंचकर लगा मानो हम किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गए हों। ऐसी दुनिया में, जिसका बाहर की किसी दुनिया से कोई वास्ता नहीं था। वास्ता इस तरह भी नहीं था कि वहां जैसी खूबसूरती या विलासिता बाहर मिलना मुश्किल था।

कोनराड पर सैर पैदल भी हो सकती है या बैटरी चालित गाडी से भी। जेट्टी से मुख्य द्वीप तक जाते हुए पुल के दोनों ओर जलजीवन का नजारा अद्भुत था। अभी हम आसपास की प्रकृति से खुद को सहज भी नहीं कर पाए थे, कि ऐसी जगह पहुंच गए, अकल्पनीय थी। सीढियों से कई मीटर नीचे समुद्र के पानी में उतरते हुए हम शीशे के ऐसे कमरे में पहुंच गए जो पानी के अंदर था। वह कमरा दरअसल एक डाइनिंग रूम था। सब तरफ शीशों के पार हम विलक्षण किस्म की छोटी-बडी मछलियां, कोरल्स, स्नोर्कलिंग व स्कूबा डाइविंग करते हुए इंसान देख सकते थे।
वहां सजी मेजों पर बैठकर खाने की कल्पना ही अपने आप में बेहद रोमांचित कर देने वाली थी। माले से सी प्लेन में इस द्वीप पर आकर इसे देखने और अंडरवाटर लंच करने का किराया ही एक आदमी के लिए 47 हजार रुपये है। कोनराड में उतरने के उस पहले आधे घंटे में जो हम देख चुके थे, उसके सम्मोहन से हम खुद को मुक्त न कर सके और आगे आने वाली सारी चीजें उस मोहपाश को सख्त ही करती गईं। चाहे वो पानी पर बना स्पा हो, वाइन सेलर हो, बेहद लजीज कोरल मछली हो, समुद्री फलों का अद्भुत रस हो या 25 हजार डॉलर प्रति रात्रि
किराये वाला सनसेट विला हो, जिसके मास्टर बेडरूम का बेड रिमोट से चारों तरफ घूमता है और आप सामने खुले समुद्र के हर हिस्से को बिस्तर पर लेटे-लेटे निहार सकते हैं- सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक। वहां से लौटने का मन न था। हम लोग अपने पासपोर्ट पानी में बहा देने को तैयार थे। लेकिन जानते थे, यह मुमकिन नहीं था। भारी मन से इसी उम्मीद के साथ लौट पडे कि फिर कभी, किसी मोड पर तकदीर यहां जरूर ले आएगी।




Tuesday, February 2, 2010

इतिहास का सफरनामा (जनवरी 2007)

आज के दौर में जब हम समुद्री जहाज की बात करते हैं तो टाइटैनिक से लेकर सुपर स्टार लिब्रा तक जैसे तमाम जहाजों का आकार-प्रकार ध्यान में आता है। लेकिन काफी पहले की बात करें तो जहाज ऐसे नहीं थे। लकड़ी के बने जहाज, हवा के बहाव से चलने वाले, जिनमें मुसाफिर कम और सामान ज्यादा लदा होता था। लेकिन ऐसा जहाज यदि आज के दौर में पानी पर तैरता नजर आए तो अचंभा होना स्वाभाविक है। हम यहां ऐसे ही एक जहाज की बात कर रहे हैं।


स्वीडिश शिप 'योत्तेबोरी' ढाई सौ साल पहले के स्वीडन के एक जहाज कास्ट इंडियामैन की हूबहू अनुकृति या रेप्लिका है। उस जहाज की, जो सितंबर 1745 में अपने तीसरे अभियान पर चीन से लौटते हुए सफर पूरा होने से बस थोड़ा ही पहले योतेबोरी शहर के बंदरगाह के मुहाने पर समुद्र में डूब गया था। तब से समुदंर की गहराइयों में दबे इस इतिहास की खोज 1986-1992 के दौरान हुई। उसका मलबा खोज निकाला गया। उसके बाद 1995 से शुरू करके सौ से भी ज्यादा कारीगरों ने दस साल से भी ज्यादा समय में उसकी अनुकृति तैयार की। इसमें मूल जहाज के ही पैमाने, आयाम, कारीगरी, शैली, हस्तकला और सामग्री का इस्तेमाल हुआ। जब यह बनकर निकला तो मानो इतिहास जीवित हो उठा था।

तब ख्याल आया उस ऐतिहासिक सफर का जो मूल जहाज ने आखिरी बार तय किया था। उसी को याद करते हुए स्वीडन से 2 अक्टूबर, 2005 को इसका सफर शुरू हुआ जो स्पेन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया होते हुए चीन में गुआंगझाऊ व शंघाई पहुंचा। अब यह हांगकांग, सिंगापुर, चेन्नई व जिबुती होते हुए वापसी के सफर पर है।

सन 1745 में कास्ट इंडियामैन जब चीन से लौट रहा था तो उसमें चाय, चीनी मिट्टी, सिल्क, कपड़े, औषधीय पौधे व धातु आदि सामान भरा था। लेकिन लगभग 260 साल बाद जब उस सफर को फिर से ताजा किया गया तो उस जहाज की हू-ब-हू अनुकृति 'योत्तेबोरी' में उस ऐतिहासिक सफर का अहसास और ढेर सारी दोस्ती लदी थी। जहाज जब कुछ महीनों बाद स्वीडन लौटेगा तो उसका क्या मुकाम होगा- अभी तय किया जाना बाकी है। लेकिन उसने कारीगरी की अनूठी मिसाल हमारे सामने यकीनन ला खड़ी की है।
आइए एक नजर डालते हैं इसकी कारीगरी पर-

यहां यह ध्यान में रखना होगा कि जहाज 'योत्तेबोरी' इतिहास की एक दास्तान के साथ-साथ पर्यावरण की चिंताएं भी साथ में लिए हुए है। जहाज में इस्तेमाल की गई ज्यादातर चीजें हाथ से बनी हुई हैं। तकनीक का इस्तेमाल केवल अपरिहार्य स्थितियों के लिए है। इस तरह यह जहाज पूर्वजों की कारीगरी के प्रति सम्मान भी जाहिर करता है। यह सम्मान इस लिहाज से भी था कि नए जहाज का निर्माण उसी सामग्री के साथ किया गया जिसके साथ उसे 18वीं सदी में बनाया गया था। लकड़ी तो लकड़ी, जहाज में इस्तेमाल की गई कीलें, पाल, रस्सियां व तमाम सामग्री मशीनों के इस्तेमाल से नहीं बल्कि कारीगरों ने हाथों से बनाई हैं। जहाज की सारी प्रणाली भी वही है। हालांकि सुरक्षा, नैविगेशन, खाना पकाने, गरम रखने, व साफ-सफाई वगैरह के आधुनिक उपकरण इस्तेमाल किए गए हैं लेकिन वे जहाज के पारंपरिक अहसास को कहीं से भी प्रभावित नहीं करते।

जहाज पर 55 हजार कीलें, लगभग बीस टन रस्सियां, और 26 पाल लगे हैं जो सभी कारीगरों ने खुद तैयार किए। जहाज बनाने के लिए खास तौर पर बलूत (ओक) के पेड़ की लकड़ी इस्तेमाल की गई। जहाज के लिए उपयुक्त इस तरह की लकड़ी दक्षिणी स्वीडन व डेनमार्क में ही मिलती है। हर कोई पेड़ भी काम नहीं आता था। पेड़ की उम्र सौ से दो सौ साल के बीच ही होनी चाहिए। दस-दस टन के लगभग हजार लट्ठे जंगलों से जहाज बनाने के लिए ले जाए गए। खास बात यह है कि इनमें से कौन सा लट्ठा जहाज में किस जगह लगा है, इसका भी पूरा हिसाब है।

जहाज के कुल पांच हिस्से हैं। पहला हिस्सा सन डेक का, दूसरा वेदर डेक का, तीसरा गन डेक का जिसपर सारी तोपें लगी हैं, चौथा लोअर डेक का और पांचवा इंजन रूम व स्टोरेज का। सन डेक सिर्फ वेदर डेक पर बने केबिन, कंट्रोल एरिया और कप्तान व नेविगेटर, फ‌र्स्ट मेट आदि के कमरों के लिए छत का काम करता है। इसी डेक पर लाइफ बोट भी रखी हैं। गन डेक में तोपों के साथ लगी बेंच डाइनिंग रूम के तौर पर इस्तेमाल आती हैं। इसी पर डाक्टर, नर्सिग केबिन, पैंट्री व चीफ इंजीनियर के केबिन हैं। जहाज में यहां तक का हिस्सा पुराने जहाज का हू-ब-हू रूप है। लोअर डेक में बाकी लोगों के रहने के केबिन, बाथरूम, रसोई व कोल्ड स्टोरेज वगैरह हैं। इनका निर्माण आधुनिक जरूरतों के अनुरूप है। सबसे निचले हिस्से में दो पावर स्टेशन, साढ़े पांच सौ होर्सपावर के दो इंजन, बोयलर, ईंधन टैंक, सीवरेज प्लांट, ईंधन टैंक, पानी के टैंक, वाशिंग मशीन, डीप फ्रीजर व स्टोर वगैरह हैं। दो मशीनें हैं जो समुद्री पानी को 16 वर्ग मीटर (लगभग 16 हजार लीटर) रोजाना के हिसाब से साफ पानी में तब्दील करती हैं। यह प्रतिदिन की औसतन जरूरत का लगभग दो गुना है। पीने के पानी को ठंडा रखने के लिए आइस मशीन भी है। पांच डीजल इंजन जहाज में रोशनी उपलब्ध कराते हैं।

कास्ट इंडियामैन को दो ध्वजाओं वाला झंडा लगाने की इजाजत थी ताकि दूर से वह लड़ाकू जहाज की झलक दे और लुटरे उससे दूर रहें। हालांकि जहाज पर दस तोपें लगी थीं, जो एक जमाने में समुद्री लुटेरों से बचाव करने और सलामी वगैरह देने में इस्तेमाल आती होंगी। ये झंडा और तोपें आज के जहाज में भी उसी रूप में देखने को मिल जाएंगी। नाविकों को आगाह करने के लिए अलग-अलग मौके पर बजने वाली घंटी भी हूबहू है। स्टीयरिंग व्हील 18वीं सदी की ही डिजाइन वाला है। उसी के सहारे जहाज चलता है। कभी-कभी जब मौसम खराब होता है तो इस व्हील को घुमाने के लिए चार-चार लोगों की जरूरत पड़ती है। हाइड्रोलिक स्टीयरिंग मशीन केवल आपात परिस्थितियों के लिए हैं। इस तरह बना 58.5 मीटर लंबा, 47 मीटर ऊंचा और 11 मीटर चौड़ा यह जहाज आम तौर पर 5-6 और अधिकतम 8 समुद्री मील की रफ्तार से चलता है। तारीफ की बात यह है कि जहाज में इस्तेमाल की गई सारी सामग्री सुरक्षा के मानदंडों पर हर तरह से जांची-परखी गई थी।

Wednesday, January 27, 2010

सिक्किमः कंचनजंघा की गोद में बसा स्वर्ग (जनवरी 2006)

छोटा सा लेकिन प्राकृतिक दृष्टि से बेहद खूबसूरत राज्य सिक्किम हिमालय के ठीक पूर्वी छोर पर स्थित है। हिमालय से इसकी नजदीकी इतनी ज्यादा है कि इस पर दुनिया की तीसरी सबसे ऊंची चोटी कंचनजंघा (8598 मीटर) की छत्रछाया मानी जाती है। यही वजह है कि सिक्किम कंचनजंघा को देवता की तरह पूजता है। प्राकृतिक रूप से भरा-पूरा और राजनीतिक दृष्टि से शांत यह राज्य हाल के सालों में बड़ी तेजी से पर्यटकों के प्रमुख आकर्षण के रूप में उभरा है।


सिक्किम के बारे में एक रोचक बात यह है कि यहां समुद्र तल से 224 मीटर से लेकर 8590 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थान है। बर्फीली चोटियां हैं तो घने जंगल भी। धान के लहलहाते खेत हैं और उछलती-कूदती नदियां भी। इसलिए यहां वनस्पति, फल-फूलों, वन्य प्राणियों आदि की जो जैव-विविधता देखने को मिलती है, वह बड़ी दुर्लभ है।

राज्य चार जिलों में बंटा हुआ है और चारों के नाम चार दिशाओं पर रखे गए हैं। राजधानी गंगटोक प्रदेश पूर्वी जिले का प्रशासनिक मुख्यालय भी है। राजधानी गंगटोक की आबादी 50 हजार के आसपास है। शहर के देवराली इलाके में स्थित रोपवे पर्यटकों के लिए अतिरिक्त आकर्षण है।

वन्य प्राणी : दुनिया में कहीं भी इतने छोटे इलाके में इतनी तरह के जीव-जंतु देखने को नहीं मिलेंगे। यहां तक कि उत्तर के बर्फीले रेगिस्तान में भी जंगली बत्तख व खच्चर घूमते मिल जाएंगे। यहां पंछियों की पांच सौ से ज्यादा किस्में हैं जिनमें दस फुट के डैने वाले विशालकाय दाढ़ी वाले गिद्ध से लेकर कुछ इंच बड़ी फुदकी तक सब शामिल हैं। इसके अलावा सिक्किम में 600 से ज्यादा किस्म की तितलियां है जिनमें से कई लुप्तप्राय हैं। जंगलों में बार्किग डियर मिलेंगे तो उनके साथ रेड पांडा भी जो राज्य का राजकीय पशु है। ऊंचाई वाले इलाकों में नीली भेड़ जिसे भराल कहा जाता है, तिब्बती जंगली खच्चर यानी कयांग और हिमालयन काला भालू मिल जाता है।

वनस्पति : सिक्किम का स्थानीय नाम डेनजोंग का अर्थ होता है चावल की घाटी। जाहिर है, चावल यहां की मुख्य फसल है। लेकिन सिक्किम जिस चीज के लिए जाना जाता है, वह है यहां के विश्व प्रसिद्ध ऑर्किड जिनकी राज्य में 450 से ज्यादा किस्म पाई जाती हैं। यानी यहां आपको हर रंग के ऑर्किड मिलेंगे। डेंड्रोबियम फैमिली का नोबल ऑर्किड यहां का राजकीय फूल है। इसके अतिरिक्त यहां दस हजार फुट की ऊंचाई पर मिलने वाले रोडोडेंड्रोन की लगभग 36 किस्म पाई जाती हैं।

यूं तो सिक्किम में इतनी सांस्कृतिक बहुलता और प्राकृतिक विविधता है कि पर्यटन का मजा उठाने वालों के लिए नजारों की कोई कमी नहीं है। सुकून तलाशने वालों के लिए शांति है और रोमांच खोजने वालों के लिए बेशुमार चुनौतियां।

राफ्टिंग : रोमांच के शौकीन लोगों के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं हो सकता। तीस्ता का प्रवाह मानो एक आमंत्रण सा देता है। नदी की तेज धार में उफनते पानी के बीच लाइफ जैकट पहनकर छोटी सी डोंगी को खेने का अनुभव बिना महसूस किए समझा नहीं जा सकता। तीस्ता व रांगित, दोनों ही नदियां राफ्टिंग के लिए उपयुक्त हैं। तीस्ता में शुरुआत माखा से की जा सकती है और यहां से नदी की धार में आप सिरवानी व मामरिंग होते हुए रांगपो तक जा सकते हैं। वहीं रागिंत नदी में सिकिप से शुरुआत करके जोरथांग व माजितार के रास्ते मेल्लि तक जाया जा सकता है। ज्यादा दिलेर व अनुभवी लोगों के लिए कयाकिंग का विकल्प भी है। राफ्टिंग व कयाकिंग के लिए अक्टूबर से दिसंबर तक का समय सबसे ज्यादा मुफीद है जब नदियां अपने पूरे यौवन पर होती हैं।

ट्रैकिंग : सिक्किम में रोमांच राफ्टिंग के अलावा ट्रैकिंग का भी है। दरअसल राज्य तेजी से ट्रैकिंग का नया बेस बनता जा रहा है। मन व शरीर साथ दे तो ट्रैकिंग के जरिये शायद आप धरती के इस खूबसूरत हिस्से को ज्यादा नजदीकी से देख-समझ सकेंगे। कभी स्तूपों व मठों से गुजरते हुए तो कभी प्रकृति की अद्भुत छटा को निहारते हुए, कभी अचानक ही मिल गए हिरण के पीछे भागते हुए तो कभी किसी ग्रामीण से कंचनजंघा के बारे में दंतकथाएं सुनते हुए आप खुद को एक अलग ही रहस्यमय दुनिया में महसूस करेंगे। यूं तो ट्रैकिंग का असली मजा ही खुद रास्ते खोजने व बनाने का है लेकिन फिर भी सुहूलियत के लिए यहां कई स्थापित ट्रैक हैं।

मार्च से मई और फिर अक्टूबर से दिसंबर के बीच पेमायांग्शे से रालंग तक मोनेस्टिक ट्रैक होता है। इसी तरह मार्च-मई में नया बाजार से पेमायांग्शे तक रोडोडेंड्रोन ट्रैक होता है। कंचनजंघा ट्रैक मध्य मार्च से मध्य जून तक और फिर अक्टूबर से दिसंबर तक युकसोम से शुरू होता है और राठोंग ग्लेशियर तक जाता है। बौद्ध धर्म में रुचि रखने वालों के लिए अक्टूबर से दिसंबर तक रूमटेक से युकसोम तक कोरोनेशन ट्रैक होता है।

डोगंरी से होने वाली याक सफारी, उत्तर व पश्चिम सिक्किम में माउंटेन बाइकिंग और युनथांग व जोरथांग में हैंग ग्लाइडिंग सिक्किम में रोमांच तलाशने वालों के लिए अन्य आकर्षण हैं। एक बात और, सिक्किम में हेलीकॉप्टर सेवा खाली बागडोगरा से लाने-ले जाने के लिए ही नहीं है बल्कि वह कंचनजंघा समेत हिमालय के पर्वतों का आकाश से विहंगम दृश्य भी कराती है।

ध्यान रखने की एक बात और है, तीन तरफ की सीमाएं तीन देशों से लगी होने से इस राज्य के कई इलाके ऐसे हैं जहां जाने के लिए परमिट की जरूरत होती है।

राज्य के उत्तरी जिले में शूल्हाखांग नाम का प्रसिद्ध बौद्ध मठ हैं जहां दुर्लभ बौद्ध ग्रंथ और 'थंकाओं' का संग्रह है। थंका उन विशाल कसीदाकारी किए हुए कपड़ों को कहते हैं जिनपर बौद्ध मंत्र उकेरे हुए होते हैं। इसके अलावा नामग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ टिबेटोलाजी व इन्चे मठ भी हैं। छोगमो झील गंगटोक से महज 40 किमी की दूरी पर स्थित है। अंडाकार यह झील 12 हजार 4 सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। झील के रास्ते में ही क्योंगनोसला अभयारण्य है। यह क्षेत्र रेड पांडा के साथ-साथ कई आकर्षक पक्षियों का आरामगाह भी है।

गंगटोक से 56 किमी की दूरी और समुद्रतल से 14 हजार 2 सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित नाथुला दर्रा एक समय चीन के लिए प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मार्ग हुआ करता था। इस समय यहां सीमा पर केवल भारत व चीन की सेना चौकियां हैं। नाथुला केवल भारतीय पर्यटकों के लिए बुधवार, बृहस्पतिवार, शनिवार व रविवार को खुला रहता है। पर्यटकों को यहां जाने के लिए परमिट लेना पड़ता है। गंगटोक से 24 किलोमीटर दूर प्रेरणा श्रोत रूमटेक मठ स्थित है, जिसे विश्व धर्म चक्र केंद्र और तिब्बती बौद्धों की कग्यूपा धारा के प्रणेता ग्याला कर्मापा का निवास माना जाता है। इस मठ की गिनती विश्व प्रसिद्ध बौद्ध मठों में की जाती है।



उत्तर सिक्किम, मंगन व आसपास

गंगटोक शहर की उत्तर दिशा की ओर बढ़ने पर हम उत्तर जिले में प्रवेश करते हैं जिसका मुख्यालय मंगन है। संभवतया यह सभी जिलों में सबसे खूबसूरत है। खानचेन जोंगा या कंचनजंघा के पर्वत शिखर की गोद में लिपटा यह जिला काफी ऊंचाई पर स्थित है, जहां के लेप्चा किसान बड़े पैमाने पर बड़ी इलायची की खेती करते हैं। यहां मुख्य रूप से दो ही समुदाय के लोग निवास करते हैं। इनमें लेप्चा सिक्किम की आदि जाति मानी जाती है और भूटिया समुदाय के लोग काफी पहले तिब्बत से आकर यहां बस गए। इस मनोहारी क्षेत्र में स्थित छोल्हमू नामक प्राकृतिक झील समुद्र तल से करीब 17 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। इसी तरह तीस्ता नदी का उद्गम स्थल यमशों झील 16 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यूमथांग को इसे सिक्किम का स्विट्जरलैंड भी कहा जाता है। समुद्र तल से करीब 11 हजार 8 सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित यह इलाका फूलों की घाटी के रूप में विश्व प्रसिद्ध है। गुरु डोंग्मार झील 17,100 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।



पश्चिम सिक्किम, गेजिंग और आसपास
यह जिला अपनी गगन चुंबी पर्वतमालाओं और रोग निवारक दिव्य गुणों से युक्त झीलों व उष्ण जल कुंडों के लिए विख्यात है। अगर सिक्किम में आप रोमांच की तलाश में आ रहे हैं तो यह जिला सबसे उपयुक्त है। हिमालय के लिए सभी ट्रैक इसी जिले से निकलते हैं। 17 सौ मीटर की ऊंचाई पर स्थित यूकसोम सिक्किम के राजघराने की पहली राजधानी थी और यहीं पर प्रथम चौग्याल (राजा) का राज तिलक हुआ था। पश्चिम सिक्किम पुराने और पवित्र बौद्ध गुम्बाओं के लिए भी मशहूर है।

17वीं सदी में निर्मित पेमायांग्शे गुंबा निंग्मापा बौद्ध संप्रदाय का सबसे पवित्र और पुराना धर्मस्थल है। एक समय था जब केवल इसी मठ के बौद्ध भिक्षु चोग्याल शासकों का राज्याभिषेक करने के अधिकारी थे। खेच्योपालरी झील सिक्किम की सर्वाधिक पवित्र मानी जाने वाली झील है, जिसके प्रति बौद्ध व हिन्दू दोनों धर्मावलम्बी अत्यंत श्रद्धा रखते हैं। यह आकर्षक झील गेजिंग व यूकसोम के बीच स्थित है। खेच्योपालरी का स्थानीय भाषा में अर्थ है मनोकामना पूरी करने वाली झील। इसके चारों तरफ घने जंगलों से भरे पहाड़ है, जहां वन्य प्राणी रमण करते हैं।



दक्षिण सिक्किम,नाम्ची और आसपास

जिले का मुख्यालय नाम्ची में स्थित है। यहां राज्य के कुछ सबसे पुराने मठ मौजूद हैं। यह जिला टेमी टी के हरे-भरे चाय बागानों और अपनी प्राकृतिक संपदा के लिए विख्यात है। नाम्ची का शाब्दिक अर्थ है गगन चुंबी। समुद्र तल से 5500 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह शहर एक व्यस्त व्यापारिक केंद्र है। नाम्ची से 14 किमी उत्तर में स्थित है बायोडाइवर्सिटी पार्क। जैव विविधताओं को दर्शाने वाला यह पूरे देश में अपने तरह का अनोखा उद्यान है।

Tuesday, January 26, 2010

झिनना जंगल कैंप (दिसंबर 2005)

छुट्टियों का आनंद जंगल के बीच
पन्ना टाइगर रिजर्व में मौजूद जंगल कैंप में ठहर कर वहां जंगली पशुओं को देखने का अलग ही रोमांच है
नए दौर में सैर-सपाटे के शौकीन लोग नई जगहें तलाश रहे हैं, नए रास्तों पर भटक रहे हैं। पुराने जमे-जमाए भीड़ भरे हिल स्टेशनों के बजाय रोमांचक या सुकून वाले स्थान खोज रहे हैं। भारत में प्राकृतिक रूप से इतनी विशालता और विविधता है कि देश के हर कोने में ऐसी सैकड़ों जगहें छिपी हैं जो अभी लोगों की पहुंच से अछूती हैं। मध्य प्रदेश में पन्ना जिले के घने जंगलों में स्थित झिनना जंगल कैंप ऐसी ही जगह है।


टाइगर देखने का रोमांच

पन्ना दो बातों के लिए प्रसिद्ध है - एक तो हीरे की खान और दूसरा टाइगर रिजर्व। एक तरफ जहां राजस्थान में सरिस्का व रणथंबौर जैसे टाइगर रिजर्व तेजी से लुप्त हो रहे बाघों के लिए चर्चा में हैं, वहीं पन्ना उन अभयारण्यों में है जहां अभी भी आसानी से बाघ देखे जा सकते हैं। पिछले सेंसस में यहां बाघों की संख्या तीस से ज्यादा आंकी गई थी।

जंगल में मंगल

यहां आप बाघ के अलावा भालू, जंगली सुअर, लकड़बग्घा, भेडि़या, सियार आदि भी देख सकते हैं। बारहसिंगों, सांभर, नीलगायों आदि की तो यहां भरमार है। पन्ना टाइगर रिजर्व के सामने आरक्षित वनक्षेत्र है। यहां वे सभी जानवर मिल जाते हैं जो रिजर्व में पाए जाते हैं। इसी जंगल में राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 75 से 16 किमी अंदर है झिनना जंगल कैंप। इसका सबसे रोमांचकारी पहलू यही है कि यहां कैंप के आसपास दूर-दूर तक घना जंगल है। दिन में टाइगर रिजर्व की सैर के बाद रात में आप नाइट सफारी का मजा ले सकते हैं। सांभर, नीलगाय, सियार व जंगली सुअर यहां दिन में भी देखे जा सकते हैं। किस्मत बुलंद हो तो अंधेरा होते -होते आप कैंप के पास लड़ते भालू भी देख सकते हैं, पर डरने की जरूरत नहीं। कैंप किसी भी जंगली जानवर के हमले से पूरी तरह

महफूज है।

किफायती और सुविधाजनक

झिनना जंगल कैंप में रहने का आनंद भी जंगल जैसा है। यहां तीन कॉटेज हैं और बाकी टेंट। बिजली-पानी की सुविधा भी पूरी तरह दुरुस्त है। खाने के लिए लजीज बुंदेली व्यंजन और किराया महज एक सस्ते होटल बराबर यानी कॉटेज का पांच सौ और टेंट का तीन सौ रुपये तक।

करने को बहुत कुछ

यह जंगल कैंप पन्ना टाइगर रिजर्व से 18 किमी और खजुराहो से लगभग 40 किमी दूर है। खजुराहो से इस कैंप तक साइकिल ट्रैक तैयार करने की योजना है। कैंप में टिक कर यहां से ट्रेकिंग के लिए भी तीन-चार ट्रैक हैं। बच्चों के लिए यहां दिन में बर्ड वाचिंग की योजना बनाई जा सकती है। यह क्षेत्र कई किस्म के पक्षियों का बसेरा है। नन्हे-मुन्नों को तो यहां कैंप में बने ट्री हाउस में भी खासा मजा आएगा। कुछ ही माह पहले वन विभाग ने यहां मोगली उत्सव भी कराया था।

कैंप की पूरी जिम्मेदारी बुंदेलखंड के इस इलाके में रह रहे जनजातीय लोगों के हाथ में है। यह कैंप राज्य सरकार और विश्व बैंक की डीपीआईपी परियोजना के तहत चार साल पहले स्थापित किया गया था। इतने कम समय में यह कैंप देश-विदेश के कई सैलानियों के लिए नियमित पर्यटन स्थल बन गया है।