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Tuesday, February 2, 2010

इतिहास का सफरनामा (जनवरी 2007)

आज के दौर में जब हम समुद्री जहाज की बात करते हैं तो टाइटैनिक से लेकर सुपर स्टार लिब्रा तक जैसे तमाम जहाजों का आकार-प्रकार ध्यान में आता है। लेकिन काफी पहले की बात करें तो जहाज ऐसे नहीं थे। लकड़ी के बने जहाज, हवा के बहाव से चलने वाले, जिनमें मुसाफिर कम और सामान ज्यादा लदा होता था। लेकिन ऐसा जहाज यदि आज के दौर में पानी पर तैरता नजर आए तो अचंभा होना स्वाभाविक है। हम यहां ऐसे ही एक जहाज की बात कर रहे हैं।


स्वीडिश शिप 'योत्तेबोरी' ढाई सौ साल पहले के स्वीडन के एक जहाज कास्ट इंडियामैन की हूबहू अनुकृति या रेप्लिका है। उस जहाज की, जो सितंबर 1745 में अपने तीसरे अभियान पर चीन से लौटते हुए सफर पूरा होने से बस थोड़ा ही पहले योतेबोरी शहर के बंदरगाह के मुहाने पर समुद्र में डूब गया था। तब से समुदंर की गहराइयों में दबे इस इतिहास की खोज 1986-1992 के दौरान हुई। उसका मलबा खोज निकाला गया। उसके बाद 1995 से शुरू करके सौ से भी ज्यादा कारीगरों ने दस साल से भी ज्यादा समय में उसकी अनुकृति तैयार की। इसमें मूल जहाज के ही पैमाने, आयाम, कारीगरी, शैली, हस्तकला और सामग्री का इस्तेमाल हुआ। जब यह बनकर निकला तो मानो इतिहास जीवित हो उठा था।

तब ख्याल आया उस ऐतिहासिक सफर का जो मूल जहाज ने आखिरी बार तय किया था। उसी को याद करते हुए स्वीडन से 2 अक्टूबर, 2005 को इसका सफर शुरू हुआ जो स्पेन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया होते हुए चीन में गुआंगझाऊ व शंघाई पहुंचा। अब यह हांगकांग, सिंगापुर, चेन्नई व जिबुती होते हुए वापसी के सफर पर है।

सन 1745 में कास्ट इंडियामैन जब चीन से लौट रहा था तो उसमें चाय, चीनी मिट्टी, सिल्क, कपड़े, औषधीय पौधे व धातु आदि सामान भरा था। लेकिन लगभग 260 साल बाद जब उस सफर को फिर से ताजा किया गया तो उस जहाज की हू-ब-हू अनुकृति 'योत्तेबोरी' में उस ऐतिहासिक सफर का अहसास और ढेर सारी दोस्ती लदी थी। जहाज जब कुछ महीनों बाद स्वीडन लौटेगा तो उसका क्या मुकाम होगा- अभी तय किया जाना बाकी है। लेकिन उसने कारीगरी की अनूठी मिसाल हमारे सामने यकीनन ला खड़ी की है।
आइए एक नजर डालते हैं इसकी कारीगरी पर-

यहां यह ध्यान में रखना होगा कि जहाज 'योत्तेबोरी' इतिहास की एक दास्तान के साथ-साथ पर्यावरण की चिंताएं भी साथ में लिए हुए है। जहाज में इस्तेमाल की गई ज्यादातर चीजें हाथ से बनी हुई हैं। तकनीक का इस्तेमाल केवल अपरिहार्य स्थितियों के लिए है। इस तरह यह जहाज पूर्वजों की कारीगरी के प्रति सम्मान भी जाहिर करता है। यह सम्मान इस लिहाज से भी था कि नए जहाज का निर्माण उसी सामग्री के साथ किया गया जिसके साथ उसे 18वीं सदी में बनाया गया था। लकड़ी तो लकड़ी, जहाज में इस्तेमाल की गई कीलें, पाल, रस्सियां व तमाम सामग्री मशीनों के इस्तेमाल से नहीं बल्कि कारीगरों ने हाथों से बनाई हैं। जहाज की सारी प्रणाली भी वही है। हालांकि सुरक्षा, नैविगेशन, खाना पकाने, गरम रखने, व साफ-सफाई वगैरह के आधुनिक उपकरण इस्तेमाल किए गए हैं लेकिन वे जहाज के पारंपरिक अहसास को कहीं से भी प्रभावित नहीं करते।

जहाज पर 55 हजार कीलें, लगभग बीस टन रस्सियां, और 26 पाल लगे हैं जो सभी कारीगरों ने खुद तैयार किए। जहाज बनाने के लिए खास तौर पर बलूत (ओक) के पेड़ की लकड़ी इस्तेमाल की गई। जहाज के लिए उपयुक्त इस तरह की लकड़ी दक्षिणी स्वीडन व डेनमार्क में ही मिलती है। हर कोई पेड़ भी काम नहीं आता था। पेड़ की उम्र सौ से दो सौ साल के बीच ही होनी चाहिए। दस-दस टन के लगभग हजार लट्ठे जंगलों से जहाज बनाने के लिए ले जाए गए। खास बात यह है कि इनमें से कौन सा लट्ठा जहाज में किस जगह लगा है, इसका भी पूरा हिसाब है।

जहाज के कुल पांच हिस्से हैं। पहला हिस्सा सन डेक का, दूसरा वेदर डेक का, तीसरा गन डेक का जिसपर सारी तोपें लगी हैं, चौथा लोअर डेक का और पांचवा इंजन रूम व स्टोरेज का। सन डेक सिर्फ वेदर डेक पर बने केबिन, कंट्रोल एरिया और कप्तान व नेविगेटर, फ‌र्स्ट मेट आदि के कमरों के लिए छत का काम करता है। इसी डेक पर लाइफ बोट भी रखी हैं। गन डेक में तोपों के साथ लगी बेंच डाइनिंग रूम के तौर पर इस्तेमाल आती हैं। इसी पर डाक्टर, नर्सिग केबिन, पैंट्री व चीफ इंजीनियर के केबिन हैं। जहाज में यहां तक का हिस्सा पुराने जहाज का हू-ब-हू रूप है। लोअर डेक में बाकी लोगों के रहने के केबिन, बाथरूम, रसोई व कोल्ड स्टोरेज वगैरह हैं। इनका निर्माण आधुनिक जरूरतों के अनुरूप है। सबसे निचले हिस्से में दो पावर स्टेशन, साढ़े पांच सौ होर्सपावर के दो इंजन, बोयलर, ईंधन टैंक, सीवरेज प्लांट, ईंधन टैंक, पानी के टैंक, वाशिंग मशीन, डीप फ्रीजर व स्टोर वगैरह हैं। दो मशीनें हैं जो समुद्री पानी को 16 वर्ग मीटर (लगभग 16 हजार लीटर) रोजाना के हिसाब से साफ पानी में तब्दील करती हैं। यह प्रतिदिन की औसतन जरूरत का लगभग दो गुना है। पीने के पानी को ठंडा रखने के लिए आइस मशीन भी है। पांच डीजल इंजन जहाज में रोशनी उपलब्ध कराते हैं।

कास्ट इंडियामैन को दो ध्वजाओं वाला झंडा लगाने की इजाजत थी ताकि दूर से वह लड़ाकू जहाज की झलक दे और लुटरे उससे दूर रहें। हालांकि जहाज पर दस तोपें लगी थीं, जो एक जमाने में समुद्री लुटेरों से बचाव करने और सलामी वगैरह देने में इस्तेमाल आती होंगी। ये झंडा और तोपें आज के जहाज में भी उसी रूप में देखने को मिल जाएंगी। नाविकों को आगाह करने के लिए अलग-अलग मौके पर बजने वाली घंटी भी हूबहू है। स्टीयरिंग व्हील 18वीं सदी की ही डिजाइन वाला है। उसी के सहारे जहाज चलता है। कभी-कभी जब मौसम खराब होता है तो इस व्हील को घुमाने के लिए चार-चार लोगों की जरूरत पड़ती है। हाइड्रोलिक स्टीयरिंग मशीन केवल आपात परिस्थितियों के लिए हैं। इस तरह बना 58.5 मीटर लंबा, 47 मीटर ऊंचा और 11 मीटर चौड़ा यह जहाज आम तौर पर 5-6 और अधिकतम 8 समुद्री मील की रफ्तार से चलता है। तारीफ की बात यह है कि जहाज में इस्तेमाल की गई सारी सामग्री सुरक्षा के मानदंडों पर हर तरह से जांची-परखी गई थी।

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