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Wednesday, September 28, 2011

मुंह में घुलती मिठास जैसा - कसौली

सर्दी शुरू होने से ठीक पहले पहाड़ों पर जाने का अलग ही मजा है। बारिशों के बाद पहाड़ हरे-भरे होते है और समूची कायनात धुली-धुली लगती है। आसमान जितना नीला इस समय होता है, उतना साल के बाकी किसी समय में नहीं होता क्योंकि न बादल होते है और न सूरज की उतनी तपिश
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अगर मैं आपको कहूं कि बेहद लजीज गुलाब जामुन खाने हों तो कसौली जाइए, तो शायद आप मुझे बेवकूफ समझेंगे। लखनऊ के चौक से लेकर दिल्ली के चांदनी चौक तक, गुलाब जामुन खाने की बहुतेरी जगहें हैं, तो भला कोई कसौली क्यों जाने लगा? सोचा मैंने भी यही था जब पहली बार कसौली पहुंचकर वहां की कुछ खास दुकानों की मिठाइयों के बारे में सुना। लेकिन खाया तो मेरी हेठी और मिठाइयों के बारे में मेरा ज्ञान, सब धरा रह गया। ..और केवल गुलाब जामुन क्यों, कसौली की कई चीजें थीं, जिनके बारे में मुझे वहां जाने से पहले कोई गुमान न था, लिहाजा वहां जाकर रोमांचित हुए बिना न रह सका। मेरे लिए बाकी हिल स्टेशनों की तुलना में कसौली ज्यादा पसंद आने की यह भी एक वजह थी।


भारत में यूं तो ज्यादातर हिल स्टेशन अंग्रेजों द्वारा बसाए गए हैं, लेकिन उनकी भी दो किस्में हैं। पहली किस्म तो शिमला, नैनीताल, ऊटी व मसूरी जैसे हिल स्टेशनों की है जो अंग्रेजों के बाद सीधे नागरिक प्रशासन के हाथों में आ गए। वे खूब फले-फूले, जमकर सैलानी आते रहे और लोगों के धंधे चाक-चौबंद रहे। दूसरी किस्म लैंसडाउन, रानीखेत व कसौली जैसी जगहों की है, जो अंग्रेजों से विरासत में भारतीय सेना के कैंटूनमेंट बोर्डो को मिल गईं। वहां खुला खेल फर्रूखाबादी नहीं चल सका, इसलिए धंधे जरा सीमित ही रहे। अंधाधुंध होटलें खुलने की गुंजाइश कम रही, इसलिए सैलानियों को लुभाने वाले भी कम रहे और लिहाजा लोगों की आवक कम रही। हालांकि कम दुकानों, कम होटलों, कम भीड का काफी फायदा भी हुआ, इन जगहों की शांति व सुकून बना रहा। हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में कसौली भी ऐसी ही जगह है। जिन्हें शिमला, मनाली, मसूरी व नैनीताल की आदत हो, उन्हें शुरू में कसौली एक उनींदा शहर लग सकता है, न भीड-भडक्का, न शोर-शराबा। लेकिन फिर धमाचौकडी ही करनी हो, तो अपने शहर क्या कम हैं। बहुतेरे सैलानी ऐसे हैं जिन्हें शिमला, नैनीताल या मसूरी जैसी जगहों पर लोगों का रैला देखकर ऊबकाई आती है। कसौली ऐसे ही लोगों के लिए है। मैं खुशकिस्मती से ऐसे ही लोगों में हूं। इसीलिए शिमला में रहने वाले कुछ परिचितों के कसौली छोडकर शिमला आने के न्योते के बावजूद हम कसौली ही गए और तीन दिन रहे।


हां, तो मैं कसौली के गुलाब जामुन का जिक्र कर रहा था। लेकिन हकीकत तो यह है कि गुलाब जामुन कसौली का वो पहला पकवान नहीं है, जिसके बारे में मैंने जाना। मैंने तो दरअसल सबसे पहले कसौली के बन-समोसे के बारे में सुना था और कसौली पहुंचकर मेरी पहली तलाश भी उसी की थी। मुझे इतना पता था कि कसौली में मोहन स्वीट्स बन-समोसे के लिए प्रसिद्ध है। कसौली के बाजार (बहुत छोटा सा है) में मोहन स्वीट्स को ढूंढा तो पता चला कि दुकान बंद हो चुकी थी क्योंकि कुछ दिनों पहले उसके अकेले कर्ता-धर्ता गुजर चुके थे। लेकिन तब दो दुकान आगे तन्नू स्वीट्स के बारे में पता चला। पता यह भी चला कि बन-समोसे वहां के भी उतने ही लोकप्रिय हैं और केवल वही नहीं, वहां की मिठाइयां, खास तौर पर गुलाब जामुन बेहद स्वादिष्ट व चर्चित हैं। यकीनन खाने के बाद जुबान ने इस बात की तस्दीक ही की। वहां पहुंचकर ही पता चला कि इन गुलाब जामुन की तारीफ खुशवंत सिंह तक अपने लेख में कर चुके हैं। बकौल खुशवंत सिंह तन्नू स्वीट्स के नरेंद्र कुमार साहू दरअसल वाराणसी की साहू हलवाई परंपरा के हैं। यहां यह भी बताता चलूं कि कसौली की एक पहचान जाने-माने साहित्यकार खुशवंत सिंह से भी है। अपर माल पर कसौली क्लब से थोडा पहले सरदार तेजा सिंह व खुशवंत सिंह की कोठी भी है।


फिलहाल फिर स्वाद की बात पर लौटते हैं। जिस बन-समोसे का जिक्र मैंने सबसे पहले सुना था वह दरअसल यथा नाम, बन को बीच में से काटकर उसमें रख दिया गया समोसा है जो प्याज, चटनी आदि के साथ खाया जाता है। बन व समोसा, दोनों हम अपने यहां खाते ही रहे हैं, लेकिन इस तरह से साथ-साथ एक व्यंजन के तौर पर नहीं। यह अलग विधि ही इसे खास बना देती है। रोचक बात यह है कि कसौली में बन के बीच इस तरह से पकवान रखकर खाने की एक परंपरा सी विकसित हो गई है। इसी तरह से बन-गुलाब जामुन भी खाया जाता है। यहां एक और खास स्वाद का जिक्र करूंगा और वह है बन-छोले का। छोले-कुलचे हम दिल्ली में खूब खाते हैं। लेकिन उसमें कभी वो स्वाद नहीं आया जो कसौली में मनकी प्वॉइंट पर खाये बन-छोले में आया। तरीका बेहद सहज था, बन को बीच में से काटकर उसे मक्खन में सेक लेना और फिर प्याज-टमाटर लगे छोले बीच में रखकर खाना। इसमें कोई अनूठी बात तो नहीं, लेकिन स्वाद शायद बनाने वाले के हाथ में भी होता है। इसीलिए वो स्वाद कहीं और चखने को न मिला। वैसे भी किसी पर्यटन स्थल पर दस-बारह रुपये में मिल रहा यह स्वाद कतई दुर्लभ है।


मैंने साहित्यकार खुशवंत सिंह का जिक्र किया तो यह भी बताता चलूं कि कई पहाडी शहरों की तरह कसौली भी उपेंद्रनाथ अश्क समेत कई साहित्यकारों की पसंदीदा रचनास्थली रहा है। सौ साल से भी ज्यादा पुराना होटल मौरिस कई साहित्य रचनाओं के खास गवाहों में से एक है। वैसे होटल मौरिस कसौली शहर के सबसे उम्दा होटलों में से भी है। कसौली चूंकि सैन्य छावनी क्षेत्र में है, इसलिए वहां नए निर्माण आदि पर नियंत्रण है। हाल के सालों में कसौली के लिए जितने भी नए होटल या रिजॉर्ट बने वे मुख्य शहर से नीचे या तो जगजीत नगर रोड पर हैं या फिर गडखल या किम्मुघाट इलाके में। कसौली के भीतर ठहरने के लिए पीडब्लूडी के दो रेस्ट हाउस भी हैं। कसौली के मुख्य इलाके में वे ही होटल हैं जो कई दशकों पहले से हैं। यह बात कसौली की ज्यादातर इमारतों के बारे में कही जा सकती है। इनमें वे दो इमारतें भी हैं जो कसौली की शान कही जा सकती हैं- पहली कसौली क्लब जो 1880 में बनी थी, और दूसरी, चर्च ऑफ इंग्लैंड जो 1844 में बनी थी, कसौली के अस्तित्व में आने के तुरंत बाद। यह विशुद्ध यूरोपीय शैली की चर्च है। मुझे चर्च से ज्यादा रोमांचित किया चर्च के परिसर में लगी सूर्य घडी ने। हैरानी की बात यह थी कि इसके बारे में मैंने कभी कहीं न पढा, न सुना। चर्च में या घडी के आस-पास भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। मैंने केवल उसकी बनावट और सूरज की छायाओं पर गौर करके अंदाजा लगाया कि यह सूर्य घडी है। और तो और उस पर कसौली के अक्षांश व देशांतर, मद्रास से वहां के समय का अंतर और वह नाम लिखा है जिससे अंग्रेज कसौली को पुकारा करते थे।


कसौली में दो और जगहें देखने की हैं- पहला मनकी प्वॉइंट। शहर से थोडी ही दूर यह एक पहाडी की चोटी पर बना हनुमान मंदिर है। मंदिर का इलाका वायुसेना क्षेत्र में है, इसलिए वहां जाने के समय व तरीके, सब वायुसेना द्वारा ही नियंत्रित हैं। मंदिर के बारे में किवंदती यह है कि संजीवनी लेकर लौटते वक्त हनुमान का पांव इस पहाडी पर टिका था। पहाडी की चोटी पांव के ही आकार की है। चोटी पर मंदिर के ठीक सामने ही हैलीपेड है। दूसरी जगह है गिल्बर्ट ट्रैल। अगर आपके पास समय हो तो यह कसौली में प्रकृति के बीच सैर की सबसे बढिया जगह है। वैसे यह कसौली के मुख्य कमान क्षेत्र से आगे केवल एक पहाडी रास्ता ही है। कसौली के इस इलाके की ऊंचाई शिमला से भी ज्यादा है (शिमला के बजाय यहां आने की एक और वजह)। साथ ही, हर सैलानी स्थल की तरह कसौली में भी सनराइज व सनसेट प्वॉइंट, दोनों हैं। इसके अलावा कसौली में करने को कुछ नहीं। वैसे कुछ करने को न होना ही यहां की सबसे खास बात है। कुछ किया जा सकता है तो.. बस अपने व अपनों के साथ फुर्सत व तफरीह के कुछ लम्हे।


चंद बातें और
KALKA-SIMLA TOY TRAIN

-कसौली कालका से शिमला तक के मुख्य रास्ते से थोड़ा हटकर है। अगर आप कसौली जाते हुए विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त कालका-शिमला छोटी रेलगाड़ी का भी आनंद लेना चाहते हों तो कालका से धर्मपुर तक जा सकते हैं। धर्मपुर से बस, कार या टैक्सी से आपको कसौली जाना होगा। वहां से कसौली महज 12 किलोमीटर दूर है, यानी 20-25 मिनट का सड़क सफर है। वरना आप चाहें तो कालका या चंडीगढ़ से सीधे कसौली भी जा सकते हैं।

-खुले मौसम में कसौली से उत्तर-पूर्व दिशा में हिमालय की चोटियों के नजारे देखे जा सकते हैं। दूसरी तरफ गिल्बर्ट ट्रैल के अंत में एक जगह ऐसी है जहां से कालका व चंडीगढ़ शहर दिखाई देते है।

-अपनी पसंद के मौसम के हिसाब से आप कसौली साल के किसी भी महीने में जा सकते हैं। तैयारी भी उसी हिसाब से रखें। सीजन में रुकने का इंतजाम पहले कर लें तो बेहतर।
Timber Trail

-कसौली में रुककर आसपास घूमना चाहें तो सनावर, धर्मपुर, टिम्बर ट्रैल (रोपवे), दसघई व चैल तक जा सकते है। सनावर में देश का एक प्रसिद्ध बोर्डिंग स्कूल भी है। अपने कसौली जाने के कार्यक्रम को सनावर स्कूल के सालाना आयोजन के समय न रखें तो बेहतर, क्योंकि उन दिनों कसौली में मजमा लग जाता है।






THE CHURCH OF ENGLAND IN KASAULI
HISTORICAL HOTEL GRAND MAURICE IN KASAULI
SOLAR WATCH AT KASAULI CHURCH
GILBERT TRAIL
PLEASURE OF TOY TRAIN

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