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Monday, October 10, 2011

मेहरानगढ़ में संगीत विलास

उत्तर भारत में यह साल का सबसे चमकदार पूनम का चांद होता है। शरद पूर्णिमा के चांद की धवल रोशनी में नहाया मेहरानगढ़ किला और मजबूत अïट्टालिकाओं के साये में कानों में रस घोलती रईस खान के मोरचंग की तान। यह एक ऐसा अनुभव है जिसकी कल्पना मात्र आनंदित कर देती है। इस आनंद को भोगना तो खैर अलग विलासिता है ही। एक सैलानी को इससे ज्यादा और क्या चाहिए।


ऐसा अक्सर नहीं होता कि भारत के किसी संगीत महोत्सव को दुनिया के शीर्ष 25 अंतरराष्ट्रीय संगीत समारोहों में गिना जाए। लेकिन जोधपुर में होने वाले राजस्थान अंतरराष्ट्रीय लोक महोत्सव (आरआईएफएफ) ने महज पांच साल में यह उपलब्धि हासिल कर ली है। यह अब केवल लोक संगीत ही नहीं बल्कि संस्कृतियों के मिलन का शानदार मंच बन गया है। 2007 में शुरू हुआ यह समारोह हर साल अक्टूबर में पांच दिन के लिए संगीत की लहरियां बिखेरता है। देश-दुनिया के ढाई सौ से ज्यादा संगीतकार व कलाकार यहां अपने संगीत की विरासत का जश्न मनाते हैं और नए मिलन-बिंदु गढ़ते हैं। इस साल यह संगीत समारोह 12 से 16 अक्टूबर को होने वाला है।

जोधपुर के मेहरानगढ़ किले को टाइम्स पत्रिका एशिया के सर्वश्रेष्ठ किले के खिताब से नवाज चुकी है। यह भारत के सबसे बड़े किलों में से एक है और उन चुनिंदा किलों में से एक, जिनकी शान काफी हद तक बरकरार है। नीले शहर जोधपुर के आसमान में चार सौ फुट की ऊंचाई पर बना पांच सौ साल पुराना किला एक पताका सा दिखाई देता है। उसकी पृष्ठभूमि में होने वाला यह संगीत समारोह सीमाओं को तोड़ते हुए लोक संगीत, जॉज, सूफी व पारंपरिक संगीत का शानदार समन्वय पेश करता है। यह इस अर्थ में भी एक संपूर्ण संगीत आयोजन हैं क्योंकि इसमें जहां शामें संगीत की धुनों में डूबी रहती हैं, वहीं दिन में यहां संगीत पर संवाद होता है। आम लोग, परिवार, संगीत प्रेमी, संगीत के छात्र आते हैं और नई जानकारियां हासिल करते हैं और सीधे सिद्धहस्त संगीतकारों से कुछ गुर सीखते हैं।

अलग-अलग विधाओं के लिए अलग-अलग मंच सजते हैं। लीविंग लीजेंड्स स्टेज पर राजस्थान के स्थानीय समुदायों के प्रमुख संगीतकार सुर बिखेरते हैं तो मुख्य स्टेज की हर शाम एक नई सनसनी पैदा करती है। क्लब मेहरान में नृत्य की थिरकन के बीच ढलती रात का अहसास खत्म हो जाता है तो सूर्योदय व सूर्यास्त के समय का संगीत आध्यात्मिकता बिखेरता है। इस साल पहली बार राजस्थान के कई इलाकों के संगीत व वाद्य, जैसे कि भील नृत्य, स्वांग व तेजाजी नृत्य, थालिसर व पावड़ी, जोगिया सारंगी, सुरमंडल, जसनाथजी के भोपे व ढोल थाली नृत्य पहली बार इस समारोह में नजर आएंगे।

Wednesday, September 28, 2011

मुंह में घुलती मिठास जैसा - कसौली

सर्दी शुरू होने से ठीक पहले पहाड़ों पर जाने का अलग ही मजा है। बारिशों के बाद पहाड़ हरे-भरे होते है और समूची कायनात धुली-धुली लगती है। आसमान जितना नीला इस समय होता है, उतना साल के बाकी किसी समय में नहीं होता क्योंकि न बादल होते है और न सूरज की उतनी तपिश
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अगर मैं आपको कहूं कि बेहद लजीज गुलाब जामुन खाने हों तो कसौली जाइए, तो शायद आप मुझे बेवकूफ समझेंगे। लखनऊ के चौक से लेकर दिल्ली के चांदनी चौक तक, गुलाब जामुन खाने की बहुतेरी जगहें हैं, तो भला कोई कसौली क्यों जाने लगा? सोचा मैंने भी यही था जब पहली बार कसौली पहुंचकर वहां की कुछ खास दुकानों की मिठाइयों के बारे में सुना। लेकिन खाया तो मेरी हेठी और मिठाइयों के बारे में मेरा ज्ञान, सब धरा रह गया। ..और केवल गुलाब जामुन क्यों, कसौली की कई चीजें थीं, जिनके बारे में मुझे वहां जाने से पहले कोई गुमान न था, लिहाजा वहां जाकर रोमांचित हुए बिना न रह सका। मेरे लिए बाकी हिल स्टेशनों की तुलना में कसौली ज्यादा पसंद आने की यह भी एक वजह थी।


भारत में यूं तो ज्यादातर हिल स्टेशन अंग्रेजों द्वारा बसाए गए हैं, लेकिन उनकी भी दो किस्में हैं। पहली किस्म तो शिमला, नैनीताल, ऊटी व मसूरी जैसे हिल स्टेशनों की है जो अंग्रेजों के बाद सीधे नागरिक प्रशासन के हाथों में आ गए। वे खूब फले-फूले, जमकर सैलानी आते रहे और लोगों के धंधे चाक-चौबंद रहे। दूसरी किस्म लैंसडाउन, रानीखेत व कसौली जैसी जगहों की है, जो अंग्रेजों से विरासत में भारतीय सेना के कैंटूनमेंट बोर्डो को मिल गईं। वहां खुला खेल फर्रूखाबादी नहीं चल सका, इसलिए धंधे जरा सीमित ही रहे। अंधाधुंध होटलें खुलने की गुंजाइश कम रही, इसलिए सैलानियों को लुभाने वाले भी कम रहे और लिहाजा लोगों की आवक कम रही। हालांकि कम दुकानों, कम होटलों, कम भीड का काफी फायदा भी हुआ, इन जगहों की शांति व सुकून बना रहा। हिमाचल प्रदेश के सोलन जिले में कसौली भी ऐसी ही जगह है। जिन्हें शिमला, मनाली, मसूरी व नैनीताल की आदत हो, उन्हें शुरू में कसौली एक उनींदा शहर लग सकता है, न भीड-भडक्का, न शोर-शराबा। लेकिन फिर धमाचौकडी ही करनी हो, तो अपने शहर क्या कम हैं। बहुतेरे सैलानी ऐसे हैं जिन्हें शिमला, नैनीताल या मसूरी जैसी जगहों पर लोगों का रैला देखकर ऊबकाई आती है। कसौली ऐसे ही लोगों के लिए है। मैं खुशकिस्मती से ऐसे ही लोगों में हूं। इसीलिए शिमला में रहने वाले कुछ परिचितों के कसौली छोडकर शिमला आने के न्योते के बावजूद हम कसौली ही गए और तीन दिन रहे।


हां, तो मैं कसौली के गुलाब जामुन का जिक्र कर रहा था। लेकिन हकीकत तो यह है कि गुलाब जामुन कसौली का वो पहला पकवान नहीं है, जिसके बारे में मैंने जाना। मैंने तो दरअसल सबसे पहले कसौली के बन-समोसे के बारे में सुना था और कसौली पहुंचकर मेरी पहली तलाश भी उसी की थी। मुझे इतना पता था कि कसौली में मोहन स्वीट्स बन-समोसे के लिए प्रसिद्ध है। कसौली के बाजार (बहुत छोटा सा है) में मोहन स्वीट्स को ढूंढा तो पता चला कि दुकान बंद हो चुकी थी क्योंकि कुछ दिनों पहले उसके अकेले कर्ता-धर्ता गुजर चुके थे। लेकिन तब दो दुकान आगे तन्नू स्वीट्स के बारे में पता चला। पता यह भी चला कि बन-समोसे वहां के भी उतने ही लोकप्रिय हैं और केवल वही नहीं, वहां की मिठाइयां, खास तौर पर गुलाब जामुन बेहद स्वादिष्ट व चर्चित हैं। यकीनन खाने के बाद जुबान ने इस बात की तस्दीक ही की। वहां पहुंचकर ही पता चला कि इन गुलाब जामुन की तारीफ खुशवंत सिंह तक अपने लेख में कर चुके हैं। बकौल खुशवंत सिंह तन्नू स्वीट्स के नरेंद्र कुमार साहू दरअसल वाराणसी की साहू हलवाई परंपरा के हैं। यहां यह भी बताता चलूं कि कसौली की एक पहचान जाने-माने साहित्यकार खुशवंत सिंह से भी है। अपर माल पर कसौली क्लब से थोडा पहले सरदार तेजा सिंह व खुशवंत सिंह की कोठी भी है।


फिलहाल फिर स्वाद की बात पर लौटते हैं। जिस बन-समोसे का जिक्र मैंने सबसे पहले सुना था वह दरअसल यथा नाम, बन को बीच में से काटकर उसमें रख दिया गया समोसा है जो प्याज, चटनी आदि के साथ खाया जाता है। बन व समोसा, दोनों हम अपने यहां खाते ही रहे हैं, लेकिन इस तरह से साथ-साथ एक व्यंजन के तौर पर नहीं। यह अलग विधि ही इसे खास बना देती है। रोचक बात यह है कि कसौली में बन के बीच इस तरह से पकवान रखकर खाने की एक परंपरा सी विकसित हो गई है। इसी तरह से बन-गुलाब जामुन भी खाया जाता है। यहां एक और खास स्वाद का जिक्र करूंगा और वह है बन-छोले का। छोले-कुलचे हम दिल्ली में खूब खाते हैं। लेकिन उसमें कभी वो स्वाद नहीं आया जो कसौली में मनकी प्वॉइंट पर खाये बन-छोले में आया। तरीका बेहद सहज था, बन को बीच में से काटकर उसे मक्खन में सेक लेना और फिर प्याज-टमाटर लगे छोले बीच में रखकर खाना। इसमें कोई अनूठी बात तो नहीं, लेकिन स्वाद शायद बनाने वाले के हाथ में भी होता है। इसीलिए वो स्वाद कहीं और चखने को न मिला। वैसे भी किसी पर्यटन स्थल पर दस-बारह रुपये में मिल रहा यह स्वाद कतई दुर्लभ है।


मैंने साहित्यकार खुशवंत सिंह का जिक्र किया तो यह भी बताता चलूं कि कई पहाडी शहरों की तरह कसौली भी उपेंद्रनाथ अश्क समेत कई साहित्यकारों की पसंदीदा रचनास्थली रहा है। सौ साल से भी ज्यादा पुराना होटल मौरिस कई साहित्य रचनाओं के खास गवाहों में से एक है। वैसे होटल मौरिस कसौली शहर के सबसे उम्दा होटलों में से भी है। कसौली चूंकि सैन्य छावनी क्षेत्र में है, इसलिए वहां नए निर्माण आदि पर नियंत्रण है। हाल के सालों में कसौली के लिए जितने भी नए होटल या रिजॉर्ट बने वे मुख्य शहर से नीचे या तो जगजीत नगर रोड पर हैं या फिर गडखल या किम्मुघाट इलाके में। कसौली के भीतर ठहरने के लिए पीडब्लूडी के दो रेस्ट हाउस भी हैं। कसौली के मुख्य इलाके में वे ही होटल हैं जो कई दशकों पहले से हैं। यह बात कसौली की ज्यादातर इमारतों के बारे में कही जा सकती है। इनमें वे दो इमारतें भी हैं जो कसौली की शान कही जा सकती हैं- पहली कसौली क्लब जो 1880 में बनी थी, और दूसरी, चर्च ऑफ इंग्लैंड जो 1844 में बनी थी, कसौली के अस्तित्व में आने के तुरंत बाद। यह विशुद्ध यूरोपीय शैली की चर्च है। मुझे चर्च से ज्यादा रोमांचित किया चर्च के परिसर में लगी सूर्य घडी ने। हैरानी की बात यह थी कि इसके बारे में मैंने कभी कहीं न पढा, न सुना। चर्च में या घडी के आस-पास भी इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है। मैंने केवल उसकी बनावट और सूरज की छायाओं पर गौर करके अंदाजा लगाया कि यह सूर्य घडी है। और तो और उस पर कसौली के अक्षांश व देशांतर, मद्रास से वहां के समय का अंतर और वह नाम लिखा है जिससे अंग्रेज कसौली को पुकारा करते थे।


कसौली में दो और जगहें देखने की हैं- पहला मनकी प्वॉइंट। शहर से थोडी ही दूर यह एक पहाडी की चोटी पर बना हनुमान मंदिर है। मंदिर का इलाका वायुसेना क्षेत्र में है, इसलिए वहां जाने के समय व तरीके, सब वायुसेना द्वारा ही नियंत्रित हैं। मंदिर के बारे में किवंदती यह है कि संजीवनी लेकर लौटते वक्त हनुमान का पांव इस पहाडी पर टिका था। पहाडी की चोटी पांव के ही आकार की है। चोटी पर मंदिर के ठीक सामने ही हैलीपेड है। दूसरी जगह है गिल्बर्ट ट्रैल। अगर आपके पास समय हो तो यह कसौली में प्रकृति के बीच सैर की सबसे बढिया जगह है। वैसे यह कसौली के मुख्य कमान क्षेत्र से आगे केवल एक पहाडी रास्ता ही है। कसौली के इस इलाके की ऊंचाई शिमला से भी ज्यादा है (शिमला के बजाय यहां आने की एक और वजह)। साथ ही, हर सैलानी स्थल की तरह कसौली में भी सनराइज व सनसेट प्वॉइंट, दोनों हैं। इसके अलावा कसौली में करने को कुछ नहीं। वैसे कुछ करने को न होना ही यहां की सबसे खास बात है। कुछ किया जा सकता है तो.. बस अपने व अपनों के साथ फुर्सत व तफरीह के कुछ लम्हे।


चंद बातें और
KALKA-SIMLA TOY TRAIN

-कसौली कालका से शिमला तक के मुख्य रास्ते से थोड़ा हटकर है। अगर आप कसौली जाते हुए विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त कालका-शिमला छोटी रेलगाड़ी का भी आनंद लेना चाहते हों तो कालका से धर्मपुर तक जा सकते हैं। धर्मपुर से बस, कार या टैक्सी से आपको कसौली जाना होगा। वहां से कसौली महज 12 किलोमीटर दूर है, यानी 20-25 मिनट का सड़क सफर है। वरना आप चाहें तो कालका या चंडीगढ़ से सीधे कसौली भी जा सकते हैं।

-खुले मौसम में कसौली से उत्तर-पूर्व दिशा में हिमालय की चोटियों के नजारे देखे जा सकते हैं। दूसरी तरफ गिल्बर्ट ट्रैल के अंत में एक जगह ऐसी है जहां से कालका व चंडीगढ़ शहर दिखाई देते है।

-अपनी पसंद के मौसम के हिसाब से आप कसौली साल के किसी भी महीने में जा सकते हैं। तैयारी भी उसी हिसाब से रखें। सीजन में रुकने का इंतजाम पहले कर लें तो बेहतर।
Timber Trail

-कसौली में रुककर आसपास घूमना चाहें तो सनावर, धर्मपुर, टिम्बर ट्रैल (रोपवे), दसघई व चैल तक जा सकते है। सनावर में देश का एक प्रसिद्ध बोर्डिंग स्कूल भी है। अपने कसौली जाने के कार्यक्रम को सनावर स्कूल के सालाना आयोजन के समय न रखें तो बेहतर, क्योंकि उन दिनों कसौली में मजमा लग जाता है।






THE CHURCH OF ENGLAND IN KASAULI
HISTORICAL HOTEL GRAND MAURICE IN KASAULI
SOLAR WATCH AT KASAULI CHURCH
GILBERT TRAIL
PLEASURE OF TOY TRAIN

Tuesday, June 28, 2011

एक चॉकलेटी दुनिया

बेल्जियम भले ही छोटा देश है, फिर भी चार दिन उसे घूमने के लिए नाकाफी हैं। हां, रास्ते बेशक नापे जा सकते है जैसे हमने चार दिन में चार शहरों के नाप डाले- ब्रुज से लेकर गेंट, एंटवर्प और फिर ब्रुसेल्स के। लेकिन चॉकलेट के स्वाद और खुशबू में डूबना हो तो यह काम वाकई चार दिन में बेल्जियम में किया जा सकता है

यह दावा तो मैं नहीं करूंगा कि दुनिया के सारे लोग चॉकलेट पसंद करते हैं। लेकिन थोड़े यकीन के साथ यह जरूर कहूंगा कि अगर दुनिया में चॉकलेट खाने वालों और न खाने वालों का हिसाब लगाया जाए तो निश्चित तौर पर चॉकलेट खाने वाले ज्यादा निकलेंगे। लिहाजा अगर आप चॉकलेट खाने के दीवाने हैं तो बेल्जियम आपके लिए स्वर्ग सरीखा है। बाजार में घूमते रहिए... हर ओर से चॉकलेट व कोको की महक आपकी सांसों में अलौकिक सुख भरती रहेगी। गाहे-बेगाहे आप किसी चॉकलेट शॉप के भीतर घुस जाएं तो वहां आपको मुफ्त में चॉकलेट चखने को भी मिल जाएगी। जाहिर है, चखाने के पीछे मकसद तो आपको खरीदने के लिए उकसाना ही होगा, लेकिन आप न खरीदकर और ऐसी कई सारी दुकानों की सैर करके भांति-भांति की चॉकलेट चखते असीम आनंद पा सकते हैं।


हम लोग आदतन मानते रहते हैं कि बात बढिय़ा चॉकलेट की हो तो स्विस (स्विट्जरलैंड की) चॉकलेट से बढिय़ा कुछ भी नहीं। लेकिन जानकारों का कहना है कि बात चॉकलेट की हो तो बेल्जियम से आगे कोई नहीं। कहा यही जाता है कि खुद स्विट्जरलैंड वालों ने चॉकलेट बनाने की मूल पाककला फ्रांस व बेल्जियम के चॉकलेट निर्माताओं (चॉकलेटियर्स) से ही हासिल की। जाहिर है, खुद बेल्जियम के लोग तो यह कहेंगे ही और बड़े अभिमान के साथ कहेंगे। यह जायज भी है। खास तौर पर वे चॉकलेट जो बाहर से सख्त लेकिन भीतर से पिघलती चॉकलेट से भरी होती हैं, वे तो बेल्जियम की ही देन हैं।

खैर हम बात कर रहे थे, चार दिन में बेल्जियम की सैर की। तो चार दिन में बेल्जियम को पूरा भले ही न घूमा जा सके, लेकिन वहां की विरासत को और उसे बनाए रखने के जज्बे को महसूस किया जा सकता है। बेल्जियम के फ्लैंडर्स इलाके के इन चार शहरों की सैर में सबसे ज्यादा वहां के उन इलाकों को देखने का मौका मिला जो सैकड़ों साल का इतिहास अपने में समेटे हुए हैं। रोचक बात यह है कि इन शहरों में सबसे ज्यादा अहमियत उस केंद्रीय इलाके की है जो सबसे पुराना है। आपको छह सौ साल पुरानी इमारतें उसी वैभव के साथ खड़ी मिल जाएंगी। एक-दो नहीं, कतार की कतार। वहां के भव्य चर्च सत्ता के साथ-साथ शिल्प, कला व संस्कृति के भी केंद्र रहे हैं। वे अपने मूल स्वरूप में आपको नजर आ जाएंगी। जेन वेन एक और पॉल रुबेंस जैसे मध्यकालीन चित्रकारों की पेंटिग्स अब भी आपको गेंट व एंटवर्प के चर्चों की शोभा बढ़ाती मिल जाएंगी। चार-पांच सौ साल पुराने घंटाघर (बेलफ्रे टॉवर) अब भी उसी शानौ-शौकत के साथ खड़े हैं। इतिहास तो हमारा कम समुद्ध नहीं, लेकिन हम दिल्ली में भी चार-पांच सौ साल पुरानी इमारतें ढूंढने जाएं तो लाल किले व कुतुब मीनार के अलावा कुछ संरक्षित नजर नहीं आता।

हैरत की बात तो इस विरासत को सहेजने में बेल्जियम के आम लोगों का जज्बा है। वहां के लोगों में अपने शहरों को लेकर एक लगाव है और अभिमान है। ब्रुसेल्स में वह रेस्तरां भी है जहां कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने मिलकर कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो लिखा था। वहां आज कुछ लिखा नहीं लेकिन हमारा गाइड हमें यह बताने से नहीं चूकता। यही वजह है कि लोग खुद अपने शहर को अच्छा रखने के प्रति जुनूनी नजर आते हैं। कुछ ऐसा ही जुनून एंटवर्प में हमें नए मास (एमएएस, जिसका अर्थ यहां नदी के किनारे संग्रहालय से है) म्यूजियम के प्रति नजर आया। म्यूजियम के उदघाटन में दो दिन बाकी थे। लेकिन सारा शहर मानो वहां उमड़ा पड़ा था। यकीनन मास आधुनिक शिल्प का बेहतरीन नमूना है, लेकिन उसके प्रति एंटवर्प के लोगों में उत्साह आंखें खोलने वाला था। इस संग्रहालय में एंटवर्प और उसके लोगों के इतिहास से जुड़ी 4.70 लाख वस्तुएं प्रदर्शित हैं। इतना ही नहीं, इस संग्रहालय के टॉप फ्लोर पर बने रेस्तरां में एक टेबल की बुकिंग के लिए छह हफ्ते की वेटिंग है। क्या हम अपने देश में किसी शहर में किसी संग्रहालय के उदघाटन में आम लोगों के इस तरह उमडऩे की कल्पना कर सकते हैं? चार दिन यह समझने के लिए भी काफी थे।

चार दिन उस विविधता को समझने के लिए भी काफी थे जो हमें एक-एक घंटे के सड़क मार्ग के फासले पर बसे इन शहरों में नजर आई। ब्रुज एक शांत शहर है, मानो इतिहास की गोद में बैठा हुआ, जहां की नहरें उसे वेनिस की सी शक्ल देती हैं। गेंट नौजवानों की मस्ती में डूबा हुआ शहर है, क्योंकि वह फ्लेमिश इलाके की शिक्षा का गढ़ है। एंटवर्प तो अपने फैशन उद्योग व हीरों की चमक के लिए दुनिया में विख्यात है ही। वहीं, आधुनिक ब्रुसेल्स में न केवल राजधानी होने की बल्कि यूरोप के एकीकृत स्वरूप का केंद्र होने की गहमागहमी है। जो बात सब जगह साझी है वह है, जिंदगी खुलकर जीने की आजादी और लोगों व माहौल की खूबसूरती। साझी वह शाम है जिसमें रात दस बजे तक इतनी रोशनी होती है कि हम अपने यहां के शाम के छह बजे से भ्रमित हो जाएं। साझी वह ठंडक है जो उनके यहां की गर्मियों में भी हमें शाम को कंपकंपा जाए। साझी वह अभिव्यक्ति भी है जो गेंट की ग्राफिटी स्ट्रीट और ब्रुसेल्स के कॉमिक स्ट्रिप म्यूजियम में देखी जा सकती है। उन कलाकृतियों में भी जो हर शहर में हर मोड़ पर कहीं न कहीं आपको नजर आ जाएंगी।

एक चीज जो चार दिन में नहीं की जा सकी, वो थी वाटरलू की सैर। हमारे इलाके में इतिहास के जानकार बेल्जियम को वाटरलू की लड़ाई से भी पहचानते हैं, जिसमें महान नेपोलियन को शिकस्त का सामना करना पड़ा था। लेकिन फ्लैंडर्स टूरिज्म के न्योते पर हुई इस सैर में वाटरलू थोड़ा दूर, अछूता रह गया।

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फ्रेंच फ्राइज व बीयर भी

चॉकलेट के अलावा खान-पान की दो और चीजों को आप बेल्जियम में खास तौर पर महसूस करेंगे- फ्राइज और बीयर। आलू से बनी फ्राइज को आम तौर पर हम फ्रेंच फ्राइज के नाम से जानते हैं, लेकिन वे हमारे यहां सामान्य खान-पान का हिस्सा उस तरह से नहीं जैसे बेल्जियम में हैं। फ्रेंच फ्राइज की पैदाइश कहां की है, यह दावा करने की स्थिति में ठीक-ठीक कोई नहीं। लेकिन इन दावों में एक बेल्जियम का भी है। बेल्जियम के पत्रकार जो गेरार्ड ने दावा किया था कि 1680 में स्पेनिश नीदरलैंड्स के इलाके में सर्दियों में मछली पकडऩा मुश्किल होने पर आलू को छोटी मछलियों की तरह काटकर ओवन में रख दिया जाता था। लेकिन उनके इस दावे को ज्यादा समर्थन नहीं मिलता। हालांकि 18वीं सदी के बाद में आलू के इस तरह के इस्तेमाल की बात सामने आती है। कहा यह भी जाता है कि इन फ्राइज के नाम में फ्रेंच शब्द अमेरिकी सैनिकों ने पहले विश्व युद्ध के समय जोड़ दिया जब वे बेल्जियम में आए क्योंकि तब बेल्जियम की सेना की सरकारी भाषा फ्रेंच थी। वह फ्राइज की लोकप्रियता का दौर था। कालांतर में वह इलाके के कई देशों की सबसे पसंदीदा स्नैक्स बन गई।

फ्राइज की ही तरह बीयर भी उस इलाके के देशों बेल्जियम, नीदरलैंड्स व जर्मनी का खास पेय है। बीयर की उत्पत्ति पर भी कई लोगों का दावा है। हालांकि यह तो माना ही जा सकता है कि यह मध्यकालीन यूरोप की उपज है। बेल्जियम के फ्लैंडर्स इलाके के मिथकीय राजा गैम्ब्रिनस को बीयर अथवा बीयर ब्रू करने की कला का जनक माना जाता है। खैर कब व कहां के विवाद में हम क्यों पड़ें, हमें तो स्वाद से मतलब। उस लिहाज से देखें तो बेल्जियम पीने वालों के लिए भी जन्नत से कम नहीं। बीयर और जिन की जितनी किस्में वहां आपको एक साथ मिल जाएंगी, उतनी मैंने कभी सुनी तक नहीं। केले से लेकर केसर तक, मानो आप स्वाद की कल्पना कीजिए और उसकी बीयर व जिन हाजिर है। ब्रुसेल्स के डेलिरियम कैफे का नाम तो गिनीज बुक में इसलिए दर्ज है कि वहां 9 जनवरी 2004 को गिनती किए जाने पर 2004 तरह की बीयर पीने व बिकने के लिए उपलब्ध थीं।

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क्या लज्जत है

परदेस में खाना सबसे बड़ी चिंता होती है। क्या खाएं और कहां खाएं? यूरोप के ठंडे देश आम तौर पर मांसाहारी होते हैं। खाने और लज्जतदार खाने और फुर्सत से खाने की जो परंपरा बेल्जियम में है, उसे देखकर यह हैरानी ही होगी कि वहां आम तौर पर कोई मोटे लोग आपको देखने को न मिलेंगे। फुर्सत की बात यहां इसलिए कही कि गेंट में नहर के ठीक सामने बेल्गा क्वीन रेस्तरां में रात का लजीज खाना खाने में हमें तीन घंटे लगे, क्योंकि तीन कोर्स का भोजन तसल्ली से खाया जाए तो वहों यह सामान्य बात है। बहरहाल, गोश्त व सी-फूड के शौकीन हों तो क्या कहने, लेकिन आप शाकाहारी हों तो भी ज्यादा चिंता की बात नहीं। विकल्प हैं, बेशक वे यूरोपीय स्वाद के ही होंगे। भारतीय रेस्तरां अमेरिका, ब्रिटेन या जापान की तरह तो नहीं लेकिन फिर भी हैं। ब्रुज में भवानी है तो ब्रुसेल्स में महारानी, गेंट में नहर के किनारे राज व आना-जाना है तो एंटवर्प में उर्वशी व संगम। जब हम शाकाहारी खाने की बात कर रहे हैं तो यह कम हैरानी की बात नहीं कि यूरोप में शाकाहारियों का सबसे ज्यादा अनुपात (साढ़े छह फीसदी) बेल्जियम में ही है। गेंट में तो शाकाहार की विशेष संस्था है और वहां बृहस्पतिवार को वेजी-डे मनाया जाता है। शहर प्रशासन ने इस दिन को मनाए जाने का आधिकारिक समर्थन किया और इस तरह से गेंट एक साप्ताहिक शाकाहार दिवस मनाने वाला दुनिया का पहला शहर बन गया। हालांकि इसका यह मतलब कदापि नहीं कि उस दिन गेंट में मांस खाया नहीं जाता, बस शाकाहार को प्रोत्साहन दिया जाता है। गोश्त या शाक, जो भी खाएं, उसके बाद वहां के डेजर्ट कतई मिस न करें। वो स्वाद आपको अपने देश में न मिलेगा।

Tuesday, April 5, 2011

हम-तुम कहीं जंगल से गुजरें, और...

जनवरी के शुरुआती दिन थे, और चारों तरफ घना जंगल था, पहाड थे.. लेकिन फिर भी खिली धूप में रणथंभौर दुर्ग की सैर पसीने छुटाने के लिए काफी थी। ढलती दुपहरिया में, ख्यालों में डूबते-उतराते फोर्ट से वापसी का सफर जीप से तय हो रहा था। पुरानी महिंद्रा के पीछे वाली सीट पर मैं गाइड के साथ बैठा था। गाइड फोर्ट का था, वह जाते हुए टाइगर रिजर्व के पहले ही नाके पर हमारे साथ हो लिया था, और वापस भी वहीं उतरने वाला था। लेकिन मेरे जेहन में सिर्फ बाघ घूम रहे थे.. क्या फोर्ट की जगह एक बार सफारी और कर लेनी चाहिए थी? आखिर अगली सुबह तो वापसी ही थी। आप अगर वाकई वन्य व प्रकृति प्रेमी हों तो किसी टाइगर रिजर्व में जाने के बाद यह तय करना बेहद मुश्किल हो जाता है कि आखिर पार्क में सफारी के लिए कितनी बार जाएं। बाघ न दिखा हो तब तो आपके कदम बार-बार आपको मृग-मरीचिका की तलाश में जंगल लेकर जाएंगे ही, लेकिन दिख जाए तो उसे फिर देखने का लालच भी कम नहीं होता। मन यही सोचता रहता है, एक बार और.. पता नहीं फिर कब देखने को मिले। हमारे जंगलों की हालत और शिकारियों के हौसलों को देखते हुए, पता नहीं यह अद्भुत जानवर अगली पीढियों को देखने को मिलेगा भी या नहीं। मुझे ख्याल था कि सरिस्का मैं दो बार जाकर खाली हाथ लौट चुका था। फिर बाघ के जंगल में पहले दीदार पन्ना में हुए, जी-भरकर हुए, बेहद करीब से हुए.. लेकिन दो साल बाद पता चला कि वह पन्ना के संभवतया आखिरी बाघों में से था, जो हमने देखा। रणथंभौर में भी यह कसक हर वक्त हावी थी। इसीलिए पिछले दिन की दूसरी सफारी में डूबती शाम तले भौंहों के ऊपर तारे जैसी छाप वाले बाघ टी-20 को राजबाग के पास लगभग बीस मिनट तक भरपूर देख लेने के बाद भी मन भरा नहीं था। फिर रणथंभौर का पर्याय बन चुकी मछली बाघिन को देखने की हसरत भी तो कहां पूरी हुई थी। इसीलिए सवेरे आखिरी वक्त तक दिल इसी दुविधा में था कि रणथंभौर के किले की सैर की जाए या एक और सफारी। दिमाग ने दिल को किला देखने के लिए राजी कर लिया। किले में तीन घंटे इतिहास व आस्था से रू-ब-रू होने के बाद भी वापसी के सफर में गाइड से सारी बातें बस जंगल की ही हो रही थी। रणथंभौर में बाघ व मगरमच्छ के संघर्ष के किस्सों ने भी मुझे खासा मुग्ध कर रखा था। खास तौर पर मछली के बारे में सुना था कि कैसे उसने तीन-तीन बार विशालकाय मगरमच्छों को पटखनी दे रखी थी। पार्क में इतने मगरमच्छ होना भी कम कौतुहल की बात नहीं थी मेरे लिए। इसीलिए जब हमारी जीप किले से सवाई माधोपुर नाके के बीच भैरों घाटी के नीचे पानी की छोटी सी धार के करीब थी, तो मैंने गाइड से पूछा कि क्या इस पानी में भी मगरमच्छ आ जाते हैं। गाइड के मुंह से दो बातें एक साथ निकली, मेरे सवाल के जवाब में- नहीं, और उसके तुरंत साथ- अरे टाइगर। आखिर के दो शब्द सुनते ही मानो मेरे रोंगटे खडे हो गए। पलक झपकते ही एक बांका, खूबसूरत, जवान बाघ घाटी से नीचे उतरकर सडक पर ठीक हमारी जीप के पीछे सडक पर दिखाई दिया। वह हमारी विपरीत दिशा में यानी किले की तरफ जा रहा था। वह रास्ता यूं तो रणथंभौर पार्क का ही हिस्सा था, लेकिन रिजर्व के उस हिस्से से बाहर था, जहां सफारी होती है। यह रास्ता किले की ओर जाने का मुख्य मार्ग था जिसका इस्तेमाल रोज सैकडों लोग किले और उसके भीतर त्रिनेत्र गणेश के प्रसिद्ध मंदिर में जाने के लिए करते हैं। ऐसे चलते रास्ते पर जब हमें बाध दिखा तो दूर-दूर तक उस बाघ और हमारी जीप के सिवाय उस रास्ते पर कोई नहीं था। दो दिन से उस रास्ते (सफारी गेट पहुंचने का रास्ता भी वही है) पर आते-जाते सुन चुका था कि किले के रास्ते में भी कई बार बाघ दिख जाते हैं। लेकिन बाघ हमें दिखेगा- इतनी नीरवता में और इतने नजदीक से, इसका गुमान न था। अगले तीस मिनट हमारे लिए एक यादगार रोमांच के थे- बाघ के कदमों के साथ-साथ रिवर्स गियर में चलती जीप, कैमरे के क्लिक बटन को लगातार दबाती उंगली और रास्ते से गुजरते हर व्यक्ति को बाघ की मौजूदगी के बारे में बताते अथक इशारे। बाघ उलटी दिशा में जा रहा था, लेकिन उसने हर थोडी देर में पलटकर हमें देख मेरे कैमरे को निराश न होने दिया। थोडी ही देर में वहां किले व सफारी से लौटते लोगों का हुजूम जमा हो गया था। बाघ के फिर रास्ता छोड ऊपर घाटी में ओझल हो जाने के बाद ही हम वहां से विदा हुआ। सवाई माधोपुर का बाकी बचा सफर एक बदली हुई फिजा में पूरा हुआ। दिल में मानो किसी जीत के बाद की तसल्ली का सा भाव था। सफारी पर फिर न जा पाने और यहां तक कि मछली को न देख पाने का अफसोस भी जाता रहा। ऐसे बस यूं ही बाघ के सरे-राह मिल जाने का रोमांच देर तक बना रहा।
रोमांच पिछले दिन भी सफारी में टी-20 से मुलाकात में बहुत रहा। सवेरे जंगल की खाक छानने के बाद शाम को भी खाली हाथ लौैटने का डर और फिर अचानक राजबाग के पास टाइगर दिखने की खबर और जहां हम थे, वहां से टाइगर तक पहुंचने के लिए सफारी के कच्चे, ऊबड-खाबड, पहाडी रास्तों और मगरमच्छ से भरे तालाबों के किनारों पर जीप की अद्भुत दौड.. जिसकी अपने अनुभव में तुलना मैं सिर्फ मलेशिया के सेपांग फॉमूर्ला वन ट्रैक पर रेसिंग कार में दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से की गई सवारी से कर सकता हूं। हम जब राजबाग के किनारे टाइगर के पास पहुंचे तो पहले ही कम से कम दस सफारी जीपों में सवार साठ-सत्तर सैलानी उसे घेरे थे। लेकिन उस मजमे से बेपरवाह (बेखबर नहीं) बाघ अपने में मस्त था। वह मिट्टी चाटता या शंका निवारण करता तो कैमरे क्लिक होने लगते। वह बढता था तो सफारी जीपें उसके साथ कदमताल करती बढने लगती थीं, मानो किसी राजा की सवारी निकल रही हो। लेकिन उस बेफिक्र की अपनी राह और अपनी मंजिल थी। अपनी तरह का एक रोमांच बिना बाघ देखे सवेरे की सफारी में भी मिल गया था जब ट्री-पाई नाम का पक्षी (सबसे ऊपर फोटो में) हमारी हथेलियों पर बैठकर हमारे हाथों से खाना ले रहा था। बेहद ताकतवर व नुकीले पंजों, तीखी चोंच वाले इस परिंदे की हिम्मत देखकर हम हैरान थे। पता चला वह बाघ के दांतों में फंसा मांस निकालकर खा लेती है। तब हमें अहसास हुआ कि वह इंसानों से इतनी बेखौफ क्यों है। दूसरी शाम जब सवाई माधोपुर लौटे तो पता चला कि भैरों घाटी में मिला टाइगर टी-5 बडा खूंखार था और एक-दो लकडहारों-चरवाहों को निशाना बना चुका था। दिल में रोमांच अब नई हिलोरें ले रहा था।



बाघ देखने की चाह
कुछ समय पहले तक रणथंभौर को भारत में बाघों की संख्या के मामले में अव्वल माना जाता था। ताजा हकीकत इस साल हो रहे टाइगर सेंसस के बाद पता चलेगी। राजस्थान की गर्मी में बाघ देखने के लिए तीन घंटे की सफारी कष्टदायक हो सकती है। इसलिए बहुत लोग सर्दियों में जाना पसंद करते हैं, जब धूप सुहानी लगे। लेकिन सर्दियों में बाघों के दिखने की संभावना कम हो जाती है। गर्मियों में आम तौर पर पानी के स्त्रोत के किनारे बाघ व अन्य जंगली जानवर प्यास बुझाते या बदन को ठंडक देते ज्यादा सहजता के साथ देखे जा सकते हैं। रणथंभौर में सफारी का समय सवेरे 7.30 बजे से 10.30 बजे तक और दोपहर में 2.30 बजे से 5.30 बजे तक है। इन समय के अलावा पार्क में घुसना या रुकना मना है। सफारी छह सीटर खुली जीप या बीस सीटर खुले कैंटर में की जा सकती है। जीप में प्रति व्यक्ति पांच सौ रुपये किराया है। बडा समूह हो तो पूरी जीप या कैंटर लिया जा सकता है। मानसून के समय टाइगर रिजर्व बंद रहता है। इतने टाइगर हैं तो पार्क में भांति-भांति के हिरण और सांभर तो होंगे ही। रणथंभौर के चार बडे तालाब मगरमच्छों से भरे पडे हैं। इतना पानी है तो सर्दियों में कई प्रवासी पक्षी भी यहां जुटते हैं। इसके अलावा मॉनिटर लिजार्ड (गोह) व कई तरह के अजगर यहां आपको रोमांचित कर सकते हैं।
 
प्रकृति, इतिहास व आस्था
टाइगर रिजर्व के ठीक बीचों-बीच बना है रणथंभौर का किला। इसकी भौगोलिक संरचना ऐसी है कि इसपर सीधा हमला करना और विजय पाना बडी टेढी खीर रहा। इसीलिए इसे देश के सबसे मजबूत किलों में से एक माना जाता है। किले के प्राचीर को देखकर इसका अहसास आज भी किया जा सकता है। पांचवी सदी में महाराजा जयंत के बनाए इस किले को इसका सबसे प्रसिद्ध राजा मिला हम्मीर देव (1282-1301 ई.) के रूप में। ये वही राजा है जिनके नाम से हम्मीर हठ की कहावत चलती है। लेकिन छल से अलीउद्दीन खिलजी ने उस पर दिल्ली के सुल्तानों का आधिपत्य कायम किया। कुछ समय के लिए राणा सांगा ने यहां शासन किया, लेकिन फिर यह मुगलों के अधीन चला गया। किले के भीतर उस दौर के भग्नावशेष अभी देखे जा सकते हैं। लेकिन इस किले की एक और प्रसिद्धि त्रिनेत्र गणेश के प्रसिद्ध मंदिर के लिए भी है। यह मंदिर भी राजा हम्मीर के समय का ही बताया जाता है। इस मंदिर की मान्यता इतनी ज्यादा है कि आज भी लोग अपने परिवार में विवाह का पहला निमंत्रण त्रिनेत्र गणेश जी के नाम यहां भेजते हैं और भगवान को हर निमंत्रण पढकर सुनाया जाता है। यहां आपका स्वागत सैकडों लंगूर करेंगे। कैसे पहुंचे: रणथंभौर टाइगर रिजर्व राजस्थान के सवाईमाधोपुर शहर से सटा है। लेकिन पार्क का मुख्य प्रवेश द्वार शहर से लगभग 11 किलोमीटर दूर है। सवाईमाधोपुर दिल्ली-मुंबई मुख्य रेलमार्ग पर दिल्ली से ट्रेन से महज चार-पांच घंटे के सफर पर स्थित है। लगभग इतना ही समय जयपुर से सवाईमाधोपुर पहुंचने में भी लगता है। दिल्ली से मथुरा-भरतपुर होते हुए सीधे सडक मार्ग से भी वहां पहुंचा जा सकता है। कहां ठहरें: देश के सबसे खूबसूरत टाइगर रिजर्व कहे जाने वाले रणथंभौर की ख्याति अपने बाघों के लिए दुनियाभर में है। बडी संख्या में विदेशी सैलानी भी यहां पहुंचते हैं। लिहाजा देश के ज्यादातर बडे समूहों के आलीशान रिजॉर्ट व होटल शहर से टाइगर रिजर्व के रास्ते में दोनों तरफ पसरे पडे हैं। लेकिन उससे कहीं ज्यादा संख्या में छोटे व मझोले किस्म के होटल हैं। हर वर्ग व पसंद के सैलानियों के लिए पूरी गुंजाइश क्योंकि रणथंभौर टाइगर रिजर्व सवाईमाधोपुर की जिंदगी है। कब जाएं: मौसम के लिहाज से सर्दियों में और ज्यादा आसानी से बाघ देखने के लिए गर्मियों में। कपडे उत्तर भारत के मौसम के अनुरूप। लेकिन जंगल जाएं तो हल्के रंग पहने जिनमें प्राकृतिक छटा झलकती हो। याद रखें, जानवरों को भडकीले रंग पसंद नहीं आते।