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Monday, May 7, 2012

काजा डायरी 5 - जो रोजी-रोटी दे दे, वही अपना देस

वापसी में किन्नर कैलाश के साये में बसे कल्पा के पीडब्लूडी रेस्ट हाउस में पहुंचकर मुझे थोड़ी हैरानी हुई। यह हैरानी वहां के स्टाफ को देखकर थी। आभास और शिवधर झारखंड में गुमला जिले के मूल निवासी हैं। हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में झारखंड के निवासियों को देखकर मै अचरज में पड़ गया था। लेकिन आभास हिमाचल आजकल में नहीं, बल्कि पूरे 24 पहले 1988 में आए थे। उनके कुछ ही समय बाद शिवधर भी पहुंच गए। तब से दोनों तमाम तरह की कच्ची नौकरियां करके आज हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में हैं। यही अब उनका घर है।


प्रवास की बात जब भी हो तो चाहे-अनचाहे बिहार की बात सबसे पहले हो जाती है। इसलिए यहां पहुंचकर यह बहस भी बड़ी बेमानी लगती है कि बिहार में शासन बदलने से रोजी-रोटी के लिए बाहर जाने वालों की तादाद कम हो गई है। स्पिलो से कल्पा के रास्ते में बिहार के दरभंगा जिले के रंजीत व शिवकुमार से मुलाकात हुई। अपने साथियों के साथ वे सड़क से नीचे सतलुज नदी की ओर उतर रहे थे। वे यहां नदी से रेत निकालकर ट्रकों व लॉरियों में भरने का काम करते हैं। यह रेत घर, वगैरह बनाने में इस्तेमाल आती है। सामान्य सा मजदूरी का काम था, कहीं भी हो सकता था। लेकिन रंजीत व उनके साथी आठ सालों से किन्नौर के इस इलाके में मजदूरी करने आते हैं। अकले नहीं, पूरे परिवार के साथ। आखिर महिलाएं भी काम करती हैं, बिलकुल पहाड़ी महिलाओं की तरह दुधमुंहे बच्चों को पीठ पर बांधकर। आठ-नौ महीने यानी अप्रैल से लेकर दिसंबर तक वे यहां काम करते हैं। उसके बाद की सर्दी बरदाश्त नहीं होती तो घर लौट जाते हैं। यहां वे नदी के किनारे या सड़क पर या कहीं पहाड़ी की किसी ओट में झुग्गी बना लेते हैं। रंजीत का कहना था कि इन आठ-नौ महीनों में वे चालीस-पचास हजार रुपये बचा लेते हैं। जब तीन-चार माह के लिए घर लौटते हैं तो कुछ समय मां-बाप, बाकी परिजनों के साथ बिता लेते हैं, थोड़ी मजूरी कर लेते हैं।

स्पीति में ताबो मोनेस्ट्री के ठीक बाहर न्यू हिमालयन अजंता रेस्टोरेंट में जब मैं नाश्ता करने रुका तो मेरी नजर वहां काम कर रहे लड़के पर पड़ी। कुछ बदहवास सा लगता था। उससे बात करने का मन हुआ। कुरेदा तो उसने बताया कि उसका नाम सुनील है और उम्र सोलह साल है। हकलाती जबान में उसने बताया कि चार दिन पहले ही बिहार में बोध गया से वह एक ठेकेदार के साथ यहां पहुंचा है। मां-बाप बोध गया में मजदूरी ही करते हैं। थोड़े ज्यादा पैसे का लालच या सुरक्षित भविष्य की उम्मीद उसे साढ़े दस हजार फुट ऊंचाई पर इस अनजान जगह और प्रतिकूल मौसम में खींच लाई।

किन्नौर में तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर काम करने वाले मेहनतकशों में ज्यादातर बिहार से नजर आते हैं। उसमें भी ज्यादा कष्टसाध्य काम उनके जिम्मे आता है। इस प्रवास में पुराने संपर्क तो रोजगार दिलाने में काम आते ही हैं, लेकिन एक सुव्यवस्थित तंत्र भी इसमें सक्रिय है। यहां काम हासिल करने वाले ठेकेदारों का संपर्क बिहार या कहीं भी कामगार जुटाने वाले लोगों से होता है और वे वहां से उनकी पर्याप्त आवक सुनिश्चित करते हैं। काम ज्यादा है और उसका भुगतान तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, इसलिए एक बार पहुंचने वाले बार-बार आते रहते है। हर बार वे अपने साथ नई तैयार होती कामगारों की खेप भी लेकर आते हैं। इनमें ज्यादातर वही हैं, जो अपने देस में भी मजूरी ही करते हैं और यहां आकर भी। एक न टूटने वाला सिलसिला चलता रहता है।

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