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Friday, May 4, 2012

काजा डायरी 2 - मिट्टी के टीलों पर टिका कई सदियों का इतिहास

ज्यादातर धर्मों में आस्था के बड़े केंद्र दुर्गम स्थानों पर स्थित रहे हैं, जहां पहुंचना आसान या सहज न हो। लेकिन स्पीति के बौद्ध मठों को देखकर दुर्गमता की परिभाषा मानो थोड़ी और विकट हो जाती है। प्रकृति की अनूठी संरचना के बीच इंसानी जीवटता क्या कमाल गढ़ती है, यह ढंकर, कीह, कोमिक या ताबो के गोंपाओं को देखकर जाना जा सकता है। सैकड़ों साल (कुछ तो हजार साल से भी ज्यादा) पुरानी इन इमारतों व उनमें मौजूद कला व शिल्प को आने वाली पीढ़ियों के देखने लायक बनाए रखने के लिए खासी कोशिशों की जरूरत है।


कुछ कोशिश हो भी रही हैं लेकिन देश के भीतर से नहीं, बाहर से। किन्नौर में नाको का गोंपा ग्यारहवीं सदी में बना था। उसके भीतर की मि्टटी की बनी प्रतिमाएं व दीवारों पर बने चित्र कब बने, इस बारे में ठीक-ठीक कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन इतना तय है कि वे सैकड़ों साल पुराने हैं। नाको गोंपा में दीवारों पर बने चित्रों में सोने की नक्काशी थी। ज्यादातर सोना कालांतर में गायब होता गया। चित्रों में गढ़ा सोना कहीं-कहीं अब भी देखा जा सकता है। रखरखाव के बिना पेंटिंग भी इतनी काली पड़ चुकी थीं, कि उन्हें देख पाना तक मुश्किल था। कुछ सालों से कुछ आस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ हर साल कुछ समय वहां बिताकर उन प्रतिमाओं व पेंटिंग्स को सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।

किन्नौर में नाको के अलावा स्पीति में ढंकर, कीह, ताबो व कौमिक गोंपाओं में भी सारी प्रतिमाएं मिट्टी की हैं। ताबो गोंपा में भी बुद्ध के जीवन व उपदेशों पर सोलहवीं सदी की कई पेंटिंग दीवारों पर बनी है और नाको की तुलना में ज्यादा सुरक्षित हैं। शायद इसलिए कि ताबो को संरक्षण ज्यादा मिला। यही बात कीह गोंपा के बारे में भी कही जा सकती है जहां चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर बने मठ में साढ़े चार सौ लामाओं के रहने की व्यवस्था है। वहीं, कौमिक की तो दुर्गमता को देखते हुए बौद्धों के साक्य मत ने काजा में नया गोंपा ही बना डाला।

लेकिन ढंकर गोंपा जितना विलक्षण है, उतना ही उसके लिए संकट भी है। तीन सौ मीटर ऊंचे टीले पर बना हजार साल पुराना गोंपा, कैसे बना होगा और कैसे टिका है, सोचकर हैरानी होती है। विश्व स्मारक कोष ने इसे खतरे में पड़ी दुनिया की सौ जगहों में से एक माना है। इसीलिए दुनियाभर के बौद्ध मतावलंबी व इतिहास प्रेमी इसे बचाने की कोशिशों में लगे हैं। जिस तरह स्पीति के गोंपाओं के भीतर प्रतिमाएं मिट्टी की हैं, उसी तरह उनकी इमारतें भी मिट्टी की हैं। तिब्बत से नजदीकी बौद्ध धर्म को यहां लेकर आई, और मिट्टी का इस्तेमाल यहां की भौगोलिक संरचना की वजह से है। इस ठंडे रेगिस्तान में बारिश इतनी कम है कि सदियों से मिट्टी की बनी चीजें भी ठोस हो गई हैं। कुछ दशकों पहले तक लोग इनके बारे में जानते ही कितना थे। अब जानने लगे हैं तो देखने जाने भी लगे हैं, इसलिए भी इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखना बहुत जरूरी हो गया है।

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