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Thursday, May 3, 2012

काजा डायरी 1 - काम की तलाश में हिमालय की चोटियां भी नाप लेते हैं कदम

मोटरसाइकिल से तीन दिन में 785 किलोमीटर का सफर तय करके जब मैं लगभग 3700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किन्नौर जिले के नाको गांव पहुंचा तो बड़ा अजनबी सा महसूस कर रहा था। इसलिए नहीं कि मेरे लिए जगह नई थी, बल्कि इसलिए कि मैं वहां अकेला सैलानी था। नाको अपनी हजार साल पुरानी मोनेस्ट्री के लिए जाना जाता है। उत्तर भारत में पिछले बीस दिनों से बिगड़े मौसम ने जहां मैदानी इलाकों में गर्मी को थोड़ा लेट कर दिया, वहीं पहाड़ के इस हिस्से में ठंड को थोड़ा ज्यादा लंबा कर दिया। इसलिए इधर सैलानियों का आना अभी शुरू नहीं हुआ है। नीचे बारिश, ऊपर बर्फबारी और सांय-सांय करती हवा ने जीवन को मुश्किल में डाल रखा है। खास तौर पर प्रवासी कामगारों के लिए। अब यह सोचना मुश्किल है कि कोई सुदूर बिहार से यहां इतने विषम इलाके में रोजी-रोटी के लिए भला क्यों आएगा, लेकिन छपरा के ब्रजकिशोर शर्मा पिछले आठ साल से यहां गर्मियों के छह महीने में कारपेंटरी करने आते हैं। अप्रैल में पहुंचते हैं, जब मौसम बरदाश्त करने लायक हो जाता है और सितंबर-अक्टूबर में घर लौट जाते हैं। बमुश्किल डेढ़ सौ घरों के गांव में भला इतना क्या काम कारपेंटरी का होता होगा? ब्रजकिशोर कहते हैं कि कभी-कभी तो पूरा सीजन एक ही घर में निकल जाता है और उसमें भी काम पूरा नहीं होता। नए मकान, होटलों आदि में खूब काम है। यही कारण है कि दुष्कर इलाके और अलग संस्कृति में भी ब्रज जैसे कई और यहां हैं। प्रवासियों के लिए यहां काम भी कई तरह के हैं।


रिकांगपियो से अर्जुन हर साल गर्मियों में यहां आकर सैलानियों के लिए टेंट लगाते हैं। मौसम ने इस साल उन्हें भी कुछ दिन लेट कर दिया। मौसम से हमीरपुर के पचास से ज्यादा उम्र के राजकुमार भी खूब परेशान थे। इतनी ऊंचाई पर मैदानी इलाकों के लोगों को सांस लेने में वैसे ही थोड़ी मुश्किल हो जाती है, ऊपर से वह ठंड से बेहाल थे। कह रहे थे कि यही हाल रहा तो दो-तीन दिन में लौट जाऊंगा। वह अपने कुछ साथियों के साथ प्लंबर का काम करने के लिए हर साल यहां आते हैं। हर साल गर्मियों की शुरुआत में उन्हें गांव की सारी पाइपलाइनें जोड़नी होती हैं। सर्दियों में (अक्टूबर में) वे इन सारी पाइपलाइनों को खोलकर नीचे चले जाते हैं। पाइपलाइनें लगी रहें तो सर्दियों में पानी के जम जाने से फट जाएं। गर्मियों में इन प्रवासी प्लंबरों के यहां पहुंचने के बाद ही पाइपलाइनें जोड़ने का काम शुरू होता है। तभी घरों व होटलों में नलों में पानी आना शुरू होता है, तभी गीजर चलते हैं। नलों, लाइनों की मरम्मत, कनेक्शन वगैरह का काम इतना होता है कि राजकुमार जैसे कुछ प्लंबरों के छह महीने यहां गुजर जाते हैं।

लेकिन प्रवास की एक उलटी धारा भी है जो सर्दियों में बहती है। नीचे रामपुर के नजदीक दत्तनगर में 18 साल का देव मिला जो सड़क किनारे डिब्बों में मधुमक्खियां पालकर शहद इकट्ठा कर रहा था। कहता था कि उसका शहद डाबर कंपनी वाले ले जाते हैं। अभी यहां सेब व अन्य फूलों के खिलने के मौसम में मधुमक्खियां अच्छे से पल जाती हैं। जब यहां सर्दियां पड़ने लगेंगी तो देव या तो हरियाणा चला जाएगा जहां सूरजमुखी के खेतों के पास मधुमक्खियां पालेगा, या फिर राजस्थान चला जाएगा, जहां सरसों के पीले फूलों के साये में उसकी मधुमक्खियां पलेंगी। रोटी की जरूरत है, कोई वहां से यहां आता है तो कोई यहां से वहां। मुश्किलों से तो हर कोई लड़ता है।

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