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Sunday, May 27, 2012

अब गोवा में भी उड़ेंगे सीप्लेन

मालदीव व दुनिया की कई अन्य जगहों पर लोकप्रिय सी-प्लेन अब भारत में भी कई जगहों पर दिखने लगेंगे। पिछले साल जनवरी में अंडमान निकोबार द्वीप में भारत की पहली सी-प्लेन सेवा शुरू करने वाली कंपनी मेहएयर (मैरिटाइम एनर्जी हैली एअर सर्विसेज) ने अब गोवा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में भी सी-प्लेन सेवा शुरू करने की योजना बना रही है।


सी-प्लेन वह छोटा हवाई जहाज होता है जो पानी पर टेक ऑफ व लैंडिंग करता है। छोटे-छोटे द्वीपों पर आने-जाने के लिए इस तरह के सी-प्लेन बहुत उपयोगी होते हैं क्योंकि पानी के रास्ते जाने में वक्त बहुत लगता है और बड़े सामान्य हवाई जहाजों के लिए हवाईअड्डे, लंबी रनवे की जरूरत होती है। फिर सी-प्लेन चूंकि बहुत ज्यादा ऊंचाई पर नहीं उड़ते हैं, इसलिए उनसे समुद्र का बेहद शानदार हवाई नजारा मिलता है। पर्यटकों के लिए सी-प्लेन बड़ा आकर्षण होते हैं।

मेहएयर को गोवा में अपने ऑपरेशन के लिए इजाजत मिल गई है और उसने इसके लिए आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र के पर्यटन मंत्रालयों से एमओयू पर भी दस्तखत कर लिए हैं। अगर सब ठीक रहा तो संभव है कि मानसून के बाद गोवा में सी-प्लेन उडऩे लगें। उसने केरल, पश्चिम बंगाल, गुजरात व लक्षद्वीप की सरकारों के पास भी इसके लिए प्रस्ताव भेजे हैं। कंपनी नौ यात्रियों की क्षमता वाले छह नए सेसना कारवां एम्फिबियेन प्लेन खरीदने की प्रक्रिया में है। आगे जाकर उसकी श्रीलंका में भी ऑपरेशन शुरू करने की योजना है।

राजपथ पर नए तरह की सैर

यह केवल दिल्ली क्या, किसी भी शहर को देखने का नया अंदाज हो सकता है। महज दो-तीन साल पहले की ही तो बात थी, जब हम नए तरह के इस दोपहिया वाहन के बारे में बातें कर रहे थे। देखते ही देखते यह वाहन न केवल बाजार में उतर आया बल्कि सैलानियों के लिए शहरों की सैर का नया जरिया बन गया। भारत के पहले सेगवे टूर की शुरुआत दिल्ली में हो गई है। अब आप इस नए तरह के दोपहिया यानी सेगवे पर दिल्ली के दिल की सैर कर सकते हैं। बैटरी से चलने वाला यह दोपहिया खुद के और उस पर सवार व्यक्ति के वजन व झुकाव को भांपकर संतुलन को अपने आप बनाए रखने में सक्षम है। बीस किमी प्रति घंटे की रफ्तार से यह हर उस जगह जा सकता है जहां कोई पैदल यात्री जा सकता है। बस, इस पर खड़े होइए और चल दीजिए। हाल के सालों में दुनिया के कई (लगभग पांच सौ) शहरों में इस तरह के सेगवे टूर प्रचलित हुए हैं, खास तौर पर उन इलाकों में, जहां किसी और तरीके से नहीं जाया जा सकता।


दिल्ली में फिलहाल ये टूर राजपथ इलाके में शुरू हुए हैं। सेगवे पर सवार होकर आप सचिवालय, राष्ट्रपति भवन, संसद भवन, विभिन्न मंत्रालयों की इमारतें, अमर जवान ज्योति और इंडिया गेट की सैर कर सकते हैं। यह टूर कुल 45 मिनट का होता है। एक सेगवे पर एक ही व्यक्ति सवार होता है और एक बार में एक टूर में पांच सैलानी शामिल हो सकते हैं। इसका प्रति व्यक्ति शुल्क लगभग 1600 रुपये है। अभी तो यह केवल नई दिल्ली में है, लेकिन आने वाले समय में पुरानी दिल्ली के इलाकों में भी इस तरह के टूर संचालित किए जाने की योजना है।

इसे दिल्ली के तेजी से बदलते पर्यटन नक्शे के तौर पर देखा जा सकता है। राष्ट्रमंडल खेलों के समय दिल्ली में हो-हो बसें शुरू हुईं। उसके बाद दिल्ली को बाइसाइकिल पर और फिर नई डिजाइन के रिक्शों पर देखने का प्रचलन चला। अब सेगवे इसकी अगली कड़ी है। लेकिन ज्यादा इलाकों में इसे ले जाने के लिए अच्छी सड़कें और अच्छे फुटपाथ, दोनों चाहिए होंगे। इसी वजह से अभी सेगवे टूर केवल सवेरे के समय हैं, जब सड़कों पर ट्रैफिक का जोर शुरू नहीं होता।

चायल: सुकून भरी खूबसूरती

शिमला या कुफरी जैसी जगह पर आप जब भी जाओ, सैलानियों का अथाह सैलाब मिलेगा। कई बार सोचकर हैरानी होती है कि इतनी भीड़ में भला कोई घूमने का क्या लुत्फ लेगा। फिर, अगर आप कसौली या चायल जैसी जगह पर चले जाएं तो यह धारणा और मजबूत हो जाती है कि वाकई छुट्टियों के नाम पर यदि सुकून चाहिए हो तो शिमला से परे भी कई जगहें हैं। चायल तो खैर शिमला से बहुत दूर भी नहीं है।

चायल इस बात का भी नमूना है कि कैसे साख की लड़ाई में खूबसूरत जगहें बस जाया करती हैं। चायल पहले महज एक खूबसूरत सा पहाड़ी गांव रहा होगा। 19वीं सदी के आखिरी दशक में इसकी तकदीर बदली। भारत में ब्रिटिश सेनाओं के कमांडर की बेटी से प्रेम की पींगें बढ़ाने के मुद्दे पर पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह के शिमला में घुसने पर अंग्रेजों ने रोक लगा दी। महाराजा के मान को इतनी ठेस लगी कि उन्होंने शिमला में अंग्रेजों की शान को चुनौती देने की ठान ली। नतीजा यह हुआ कि शिमला की निगाहों में लेकिन उससे ज्यादा ऊंचाई पर महल बनाने की जिद ने चायल को बसा दिया। इस तरह चायल ऊंचाई में शिमला से ऊंचा है और चायल से शिमला को देखा जा सकता है। मजेदार बात यह है कि महाराजा भूपिंदर सिंह को चायल कुछ समय पहले अंग्र्रेजों ने ही तोहफे में दिया था। उससे पहले चायल तत्कालीन केउथल एस्टेट का हिस्सा था। चायल तीन पहाडिय़ों पर बसा हुआ है। चायल पैलेस राजगढ़ हिल पर है, जबकि रेजीडेंसी स्नो व्यू पंढेवा पहाड़ी पर है। कभी इसका मालिकाना एक ब्रिटिश नागरिक के पास था। तीसरी पहाड़ी सब्बा टिब्बा पर चायल शहर बसा हुआ है।

रात में केवल शिमला ही नहीं, बल्कि कसौली शहर की भी रोशनियां चायल से बड़ी मनोहारी लगती हैं। चायल में शिमला जैसी भीड़ नहीं, दरअसल वह उतना बड़ा भी नहीं। इसलिए यहां शांति है, सुकून है, तसल्ली है। चायल से सामने दूर तक फैली घाटी का नजारा बेहद खूबसूरत है, जो शायद शिमला में भी नहीं मिलता। इसी घाटी में सतलज नदी बहती है। गर्मियों में चीड़ के पेड़ों से बहकर आती हवा ठंडक का अहसास देती है। पतझड़ में पीले पत्तों से ढकी घाटी मानो सुनहरा रंग ओढ़ लेती है। सर्दियों में यही समूची घाटी बर्फ से लकदक सफेद नजर आती है। हर मौसम का अलग रूप।



क्या देखें

चायल में महाराजा पटियाला का पैलेस, वहां का सबसे बड़ा आकर्षण है। सौ साल से भी पुराना यह महल अब होटल में तब्दील हो चुका है। किसी समय देश के सबसे संपन्न राजघराने रहे पटियाला का वैभव व शानो-शौकत आज भी इस पैलेस में साफ नजर आती है।

चायल में 7250 फुट की ऊंचाई पर स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा क्रिकेट मैदान भी है। खूबसूरत और चीड़ व देवदार के पेड़ों से घिरा हुआ। हालांकि यह कोई अलग स्टेडियम नहीं बल्कि चायल के मिलिटरी स्कूल का खेल का मैदान है, लेकिन चायल आने वाले सैलानियों के लिए बड़ा आकर्षण। खेल का यह मैदान, पोलो के लिए भी इस्तेमाल आता है और इस लिहाज से यह दुनिया में सबसे ऊंचा पोलो का भी मैदान है।

चायल में दस हजार वर्ग हेक्टेयर इलाके में फैला आरक्षित वनक्षेत्र भी है। इस चायल सैंक्चुअरी में घोरल, सांभर, बार्किंग डीयर व रेड जंगल फाउल समेत कई छोटे जानवर व पक्षी हैं। कभी-कभार तेंदुए यहां देखने को मिल जाते हैं। आधी सदी पहले महाराजा पटियाला ने यहां यूरोपीयन रेड डीयर भी लाकर छोड़े थे। उनमें से भी कोई बचा-खुचा कभी देखने को मिल जाता है क्योंकि उनका अस्तित्व यहां खतरे में है। इसमें जानवर देखने के लिए कई जगह मचान भी बने हैं। इसी तरह इलाके में कई जगह फिशिंग लॉज भी बने हुए हैं। चायल से 29 किलोमीटर दूर गौरा नदी में शौकीन लोग मछली पकडऩे जाते हैं।

चायल में देवदार के पेड़ों के बीच से जंगल में सैर करने का भी अलग आनंद है। आस-पास के गांवों, गौरा नदीं या सतलज के लिए आप यहां से छोटे-छोटे ट्रैक भी कर सकते हैं। सिरमौर जिले में लगभग 12 हजार फुट ऊंची चूड़ चांदनी चोटी के लिए भी यहां से ट्रैक किया जा सकता है। इसे चूड़ चांदनी इसलिए कहा जाता है क्योंकि चांदनी रातों में यहां का ढलान चांदी की चूडि़यों जैसा दिखाई देता है। ऊपर से आसपास का नजारा अद्भुत होता है।

चायल की लोकप्रिय जगहों में से एक सिद्ध बाबा का मंदिर है। कहा जाता है कि महाराजा भूपिंदर सिंह पहले अपना महल उसी जगह पर बनवाना चाहते थे, जहां आज यह मंदिर है। जब महाराजा को यह पता चला कि उसी जगह पर सिद्ध बाबा ध्यान किया करते थे तो भूपिंदर सिंह ने महल थोड़ी दूर बनवाया और उस स्थान पर सिद्ध बाबा का मंदिर बनवाया।

चायल अपने मिलिट्री स्कूल के लिए भी प्रसिद्ध है। यह स्कूल शुरू तो अंग्रेजों ने आजादी से कई साल पहले किया था। पहले यह सिर्फ सेना के अफसरों के बच्चों को सैन्य इम्तिहानों के लिए तैयार करने के इरादे से मुफ्त शिक्षा देने के लिए था। धीरे-धीरे इसके स्वरूप में बदलाव आता गया। आजादी के बाद आम लोगों के बच्चों को भी फीस देकर यहां पढ़ने की इजाजत दी गई।

तोशाली हिमालयन व्यू
दूरी

चायल के लिए कालका से शिमला के रास्ते में कंडाघाट से रास्ता अलग होता है। शिमला से आना चाहें तो कुफरी तक आकर वहां से कंडाघाट वाला रास्ता पकड़ लें तो चायल पहुंच जाएंगे। कुफरी से चायल 23 किलोमीटर दूर है और शिमला से 45 किलोमीटर दूर।
कहां व कैसे

चायल बहुत छोटा शहर है। अभी यहां सैलानियों व लोगों की उस तरह की मारामारी नहीं है। इसलिए होटल भी कम है। महाराजा पटियाला का चायल पैलेस यहां का सबसे बड़ा और आलीशान होटल है। लेकिन यहां कमरे व कॉटेज अलग-अलग कई बजटों के लिए हैं। बाकी होटल मिले-जुले बजट के हैं। गर्मियों में जब सैलानी बढऩे लगते हैं तो लोग कंडाघाट से चायल के रास्ते में साधू-पुल और कुफरी से चायल के रास्ते में शिलोनबाग व कोटी में भी ठहरते हैं। शिलोनबाग में तोशाली हिमालयन व्यू जैसे रिजॉर्ट सुकूनभरी छुट्टियां बिताने के लिए बेहतरीन हैं, जहां आप आपने कमरों से मानो घाटी को छू सकते हैं। दरअसल शिमला में सैलानियों की भीड़ के चलते एकांत के इच्छुक लोग शिमला के बजाय बाहर के इलाकों में रुककर वहां से शिमला, कुफरी, फागु, चायल वगैरह देखना पसंद करते हैं। इसीलिए कंडाघाट से कुफरी का रास्ता होटलों के नए ठिकाने के रूप में खासा लोकप्रिय हो रहा है।

Monday, May 7, 2012

काजा डायरी 5 - जो रोजी-रोटी दे दे, वही अपना देस

वापसी में किन्नर कैलाश के साये में बसे कल्पा के पीडब्लूडी रेस्ट हाउस में पहुंचकर मुझे थोड़ी हैरानी हुई। यह हैरानी वहां के स्टाफ को देखकर थी। आभास और शिवधर झारखंड में गुमला जिले के मूल निवासी हैं। हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में झारखंड के निवासियों को देखकर मै अचरज में पड़ गया था। लेकिन आभास हिमाचल आजकल में नहीं, बल्कि पूरे 24 पहले 1988 में आए थे। उनके कुछ ही समय बाद शिवधर भी पहुंच गए। तब से दोनों तमाम तरह की कच्ची नौकरियां करके आज हिमाचल सरकार की पक्की नौकरी में हैं। यही अब उनका घर है।


प्रवास की बात जब भी हो तो चाहे-अनचाहे बिहार की बात सबसे पहले हो जाती है। इसलिए यहां पहुंचकर यह बहस भी बड़ी बेमानी लगती है कि बिहार में शासन बदलने से रोजी-रोटी के लिए बाहर जाने वालों की तादाद कम हो गई है। स्पिलो से कल्पा के रास्ते में बिहार के दरभंगा जिले के रंजीत व शिवकुमार से मुलाकात हुई। अपने साथियों के साथ वे सड़क से नीचे सतलुज नदी की ओर उतर रहे थे। वे यहां नदी से रेत निकालकर ट्रकों व लॉरियों में भरने का काम करते हैं। यह रेत घर, वगैरह बनाने में इस्तेमाल आती है। सामान्य सा मजदूरी का काम था, कहीं भी हो सकता था। लेकिन रंजीत व उनके साथी आठ सालों से किन्नौर के इस इलाके में मजदूरी करने आते हैं। अकले नहीं, पूरे परिवार के साथ। आखिर महिलाएं भी काम करती हैं, बिलकुल पहाड़ी महिलाओं की तरह दुधमुंहे बच्चों को पीठ पर बांधकर। आठ-नौ महीने यानी अप्रैल से लेकर दिसंबर तक वे यहां काम करते हैं। उसके बाद की सर्दी बरदाश्त नहीं होती तो घर लौट जाते हैं। यहां वे नदी के किनारे या सड़क पर या कहीं पहाड़ी की किसी ओट में झुग्गी बना लेते हैं। रंजीत का कहना था कि इन आठ-नौ महीनों में वे चालीस-पचास हजार रुपये बचा लेते हैं। जब तीन-चार माह के लिए घर लौटते हैं तो कुछ समय मां-बाप, बाकी परिजनों के साथ बिता लेते हैं, थोड़ी मजूरी कर लेते हैं।

स्पीति में ताबो मोनेस्ट्री के ठीक बाहर न्यू हिमालयन अजंता रेस्टोरेंट में जब मैं नाश्ता करने रुका तो मेरी नजर वहां काम कर रहे लड़के पर पड़ी। कुछ बदहवास सा लगता था। उससे बात करने का मन हुआ। कुरेदा तो उसने बताया कि उसका नाम सुनील है और उम्र सोलह साल है। हकलाती जबान में उसने बताया कि चार दिन पहले ही बिहार में बोध गया से वह एक ठेकेदार के साथ यहां पहुंचा है। मां-बाप बोध गया में मजदूरी ही करते हैं। थोड़े ज्यादा पैसे का लालच या सुरक्षित भविष्य की उम्मीद उसे साढ़े दस हजार फुट ऊंचाई पर इस अनजान जगह और प्रतिकूल मौसम में खींच लाई।

किन्नौर में तो राष्ट्रीय राजमार्ग पर काम करने वाले मेहनतकशों में ज्यादातर बिहार से नजर आते हैं। उसमें भी ज्यादा कष्टसाध्य काम उनके जिम्मे आता है। इस प्रवास में पुराने संपर्क तो रोजगार दिलाने में काम आते ही हैं, लेकिन एक सुव्यवस्थित तंत्र भी इसमें सक्रिय है। यहां काम हासिल करने वाले ठेकेदारों का संपर्क बिहार या कहीं भी कामगार जुटाने वाले लोगों से होता है और वे वहां से उनकी पर्याप्त आवक सुनिश्चित करते हैं। काम ज्यादा है और उसका भुगतान तुलनात्मक रूप से ज्यादा है, इसलिए एक बार पहुंचने वाले बार-बार आते रहते है। हर बार वे अपने साथ नई तैयार होती कामगारों की खेप भी लेकर आते हैं। इनमें ज्यादातर वही हैं, जो अपने देस में भी मजूरी ही करते हैं और यहां आकर भी। एक न टूटने वाला सिलसिला चलता रहता है।

Sunday, May 6, 2012

काजा डायरी 4 - पर्वतों पर रास्ते जीवन हैं तो क्या...

पर्वतों के रास्ते बड़ा दुष्चक्र हैं। उन्हें बनाना मुश्किल, बनाए रखना मुश्किल और न हों तो वहां पहुंचना मुश्किल। इतनी ऊंचाई पर मोटरसाइकिल चलाकर जाते हुए यह ख्याल सहज ही आता है कि रास्ते बनाने वालों ने इतना जोखिम न लिया होता तो भला हम कैसे यहां पहुंचते! फिर जब किसी भूस्खलन की वजह से रास्ते में अटको तो यह ख्याल आता है कि हर जगह पहुंचने की जद्दोजहद में हमने कहीं यहां प्रकृति से जानते-बूझते खिलवाड़ तो नहीं कर लिया!


रास्ते बनाने होंगे तो पहाड़ों को काटना होगा। पहाड़ काटेंगे तो कमजोर होंगे, ढहेंगे। पहाड़ ढहेंगे तो हम दुबारा नई जगह से पहाड़ काटेंगे। इस बार इतना चौड़ा काटेंगे कि ढहने का असर ही न हो या फिर ऊपर से इतना काट देंगे कि वह ढह ही न पाए। आखिर आगे के इलाकों के लिए रसद-पानी-सामान पहुंचाने के लिए बड़े वाहन जाने होंगे तो उनके लिए भी चौड़े रास्ते बनाने होंगे। हम तो अब पहाड़ी नदियों के पानी का भरपूर इस्तेमाल बांध बनाने के लिए भी कर रहे हैं। बांधों पर पर्यावरण के सवाल तो हम यहां नहीं उठा रहे, लेकिन बांध और फिर बिजनी बनाने की मशीनें पहुंचाने के लिए तो बड़े ट्रैलर भी जाएंगे, उनके लिए और चौड़े रास्ते चाहिए होंगे। यह चक्र खत्म नहीं होता, और पहाड़ कटते रहते हैं। पहाड़ भी खामोश नहीं रहते और अपनी बलि लेते रहते हैं।

इतनी दुर्गम जगह पर रास्ते बनाने के भी अपने जोखिम हैं। चूंकि शीत मरुस्थल का यह इलाका वनस्पति विहीन है, इसलिए पहाड़ बेहद कमजोर हैं। पेड़ नदारद हैं और बड़ी चट्टानें भी कम ही हैं। कई जगह पहाड़ के पहाड़ मिट्टी, छोटे पत्थर या बजरी के मिल जाएंगे। उन्हें छेड़ा जाए तो उनका ढहना अवश्यसंभावी है। वहां बारिश बहुत कम होती है, इसलिए वर्षा के जोर से पहाड़ों में भूस्खलन नहीं होता। किन्नौर व स्पीति के राष्ट्रीय राजमार्ग 22 को बनाने व देखरेख का काम सेना के बीआरओ (सीमा सड़क संगठन) व ग्रेफ (जनरल रिजर्व इंजीनियर फोर्स) के पास है। रास्ते भर, आपको कई ऐसे स्मारक बने मिल जाएंगे, जिनपर उन जवानों व अफसरों के नाम लिखे होंगे जिनकी जानें रास्ते या पुल बनाने के दौरान कुर्बान हो गईं।

राजमार्ग के अलावा दूर-दराज के गांवों के लिए संपर्क मार्ग बनाने का काम लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी) के पास है। रास्ते बनाने व उनके रखरखाव का काम स्थानीय स्तर पर रोजगार का भी बड़ा साधन है। तीन-चार हजार मीटर की ऊंचाई पर बने संपर्क मार्गों पर हर थोड़ी दूरी पर स्थानीय महिलाओं का समूह, सड़क की सफाई करता, गिरे पत्थर हटाता नजर आ जाएगा। महिलाएं बताती हैं कि दिनभर अपने हिस्से की सड़क की देखरेख करने के लिए उन्हें पीडब्लूडी अप्रैल से दिसंबर की पूरी अवधि के लिए अस्सी-नब्बे हजार रुपये का धन अग्रिम दे देता है। सर्दियों के बाकी महीनों के लिए भी अलग से पगार मिलती है।

हर साल सर्दियों के बाद बर्फबारी से बंद हुए रास्तों को फिर खोलना भी इन इलाकों की मशीनरी के लिए बड़ा काम है। इस काम को करने के पीडब्लूडी व ग्रेफ के तरीकों में भी अंतर है। काजा में दबी आवाज में कहा जा रहा था कि इस बार लाहौल व स्पीति घाटियों को जोड़ने वाले कुंजम दर्रे को खोलने का काम भी इसी वजह से लेट हो गया है। अब तक यह काम पीडब्लूडी के पास था, इस बार ग्रेफ के हवाले कर दिया गया है जो अभी तक नीचे से बर्फ साफ करने वाली बड़ी मशीनों का इंतजार कर रहे हैं। पीडब्लूडी के लोग कहते हैं कि हमारे पास होता तो हमने अब तक कुंजम पास खोल दिया होता।

काजा से लौटते हुए फिर दो बार पहाड़ काटे जाने की वजह से मुझे अटकना पड़ा और हर बार मैं एक तरफ पहाड़ का ख्याल करता था तो दूसरी तरफ काजा बाइक से आने के अपने सपने के बारे में।

Saturday, May 5, 2012

काजा डायरी 3 - आखिर ऊंचाई में क्या रखा है

किब्बर जाने की इच्छा हमेशा एक भावनात्मक लगाव से जुड़ी रही है। आखिर हम उसे सबसे ऊंचे गांव के रूप में हमेशा से सुनते-पढ़ते आ रहे हैं। देखने को मन करता था कि आखिर एवरेस्ट (8848 मीटर) की लगभग आधी ऊंचाई पर बसा गांव कैसा होगा! इतनी मुश्किल स्थिति में लोग कैसे गुजर करते होंगे! यहां आकर पता चलता है कि स्पीति में चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर बसे गांव कई होंगे। किब्बर (4250 मीटर) को उनमें से कैसे सबसे ऊंचा आंका गया था, यह कौतूहल का विषय है। यह कौतूहल इसलिए और भी है कि अब कुछ और गांव सबसे ऊंचे गांव की दावेदारी में आ गए हैं। इनमें लांगजा और हिक्किम के भी नाम हैं। किब्बर गांव के लिए काजा से कीह गोंपा वाला ही रास्ता जाता है, जबकि लांगजा व हिक्किम कौमिक गोंपा के रास्ते में हैं। किब्बर को सालों पहले सबसे ऊंचा गांव आंकने के पीछे हो सकता है यह वजह भी रही हो कि उस गांव का नीचे के सरकारी अमले से सबसे पहले संपर्क कायम हो गया हो। जैसे-जैसे ऊंचाई वाले इलाकों के लिए संपर्क मार्ग बने हों, नए-नए गांव नक्शे पर आ गए हों। आखिर गांवों की ऊंचाई में तो कोई फर्क न आया होगा, और न ही उन गांवों के लोग अबतक एकांतवास में रहते होंगे। नीचे की दुनिया और आसपास के गांवों से तो उन गांवों के बाशिंदों का संपर्क हमेशा रहा ही होगा।


वन विभाग की स्पीति रेंज में डिप्टी रेंजर और किब्बर के निवासी दोरजे नामग्याल अपने गांव के तमगे पर उठे संशय से दुखी थे। उनका कहना था कि यूं भी टूरिस्टों की आवक कोई बहुत अच्छी न थी, अब नीचे काजा में टूरिस्टों को यह कह दिया जाता है कि सबसे ऊंचा गांव तो किब्बर नहीं, बल्कि लांगजा है। ऊंचाई थोड़ी-बहुत कम-ज्यादा होने से क्या होता है! वैसे यह कम रोचक नहीं कि इतनी ऊंचाई पर बसा यह गांव हमारे मैदानी इलाकों के कई देहातों से ज्यादा खुशहाल है। महज 75 घर और 450 की आबादी वाले इस गांव में सीनियर सेकेंडरी स्कूल है, आधे घरों में सैटेलाइट टीवी के कनेक्शन हैं , अच्छी खेती है और मवेशी हैं। यकीनन इसमें इनकी मेहनत का भी योगदान है जो उन बंजर पहाड़ों में ग्लेशियरों के पानी का इस्तेमाल करके भरपूर जौ तक उपजा लेते हैं।

ऊंचाई के तमगे की ज्यादा परवाह लांगजा को भी नहीं है। वहां के निवासी व सरकारी कर्मचारी तानजिंग कहते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है। किब्बर की तुलना में लांगजा गांव छोटा है, वहां महज 33 घर हैं। वैसे मजेदार बात यह है कि जहां लांगजा गांव पर लगे लोक निर्माण विभाग के बोर्ड पर उसकी ऊंचाई 4200 मीटर लिखी हुई है, वहीं ठीक उसी के बगल में लगे एक स्थानीय संरक्षण संगठन के बोर्ड पर उसकी ऊंचाई 4400 मीटर लिखी हुई है। लांगजा से और आठ किलोमीटर आगे, कौमिक गोंपा के पास स्थित हिक्किम की ऊंचाई भी कमोबेश लांगजा या किब्बर के ही बराबर है। हिक्किम की ख्याति पहले ही सबसे ऊंचे डाकघर के लिए है। वहीं लांगजा में हजार साल पुराना लांग (बौद्ध) मंदिर है। लांगजा के लांग को स्पीति घाटी के सभी देवताओं का केंद्र माना जाता है।

जो भी ऊंचाई हो और कोई भी गांव अव्वल हो, इतना तो तय है कि भौगोलिक संरचना और समाज-संस्कृति के लिहाज से सभी गांव खास अहमियत वाले हैं। उन सभी को देखना एक अलग अनुभूति देता है। यकीनन सभी गांव सैकड़ों साल पहले बसे होंगे। इसके पीछे हो सकता है किन्हीं खास संस्कृति को बचाए रखने की कोशिश भी एक वजह हो।

Friday, May 4, 2012

काजा डायरी 2 - मिट्टी के टीलों पर टिका कई सदियों का इतिहास

ज्यादातर धर्मों में आस्था के बड़े केंद्र दुर्गम स्थानों पर स्थित रहे हैं, जहां पहुंचना आसान या सहज न हो। लेकिन स्पीति के बौद्ध मठों को देखकर दुर्गमता की परिभाषा मानो थोड़ी और विकट हो जाती है। प्रकृति की अनूठी संरचना के बीच इंसानी जीवटता क्या कमाल गढ़ती है, यह ढंकर, कीह, कोमिक या ताबो के गोंपाओं को देखकर जाना जा सकता है। सैकड़ों साल (कुछ तो हजार साल से भी ज्यादा) पुरानी इन इमारतों व उनमें मौजूद कला व शिल्प को आने वाली पीढ़ियों के देखने लायक बनाए रखने के लिए खासी कोशिशों की जरूरत है।


कुछ कोशिश हो भी रही हैं लेकिन देश के भीतर से नहीं, बाहर से। किन्नौर में नाको का गोंपा ग्यारहवीं सदी में बना था। उसके भीतर की मि्टटी की बनी प्रतिमाएं व दीवारों पर बने चित्र कब बने, इस बारे में ठीक-ठीक कोई जानकारी नहीं मिलती लेकिन इतना तय है कि वे सैकड़ों साल पुराने हैं। नाको गोंपा में दीवारों पर बने चित्रों में सोने की नक्काशी थी। ज्यादातर सोना कालांतर में गायब होता गया। चित्रों में गढ़ा सोना कहीं-कहीं अब भी देखा जा सकता है। रखरखाव के बिना पेंटिंग भी इतनी काली पड़ चुकी थीं, कि उन्हें देख पाना तक मुश्किल था। कुछ सालों से कुछ आस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ हर साल कुछ समय वहां बिताकर उन प्रतिमाओं व पेंटिंग्स को सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं।

किन्नौर में नाको के अलावा स्पीति में ढंकर, कीह, ताबो व कौमिक गोंपाओं में भी सारी प्रतिमाएं मिट्टी की हैं। ताबो गोंपा में भी बुद्ध के जीवन व उपदेशों पर सोलहवीं सदी की कई पेंटिंग दीवारों पर बनी है और नाको की तुलना में ज्यादा सुरक्षित हैं। शायद इसलिए कि ताबो को संरक्षण ज्यादा मिला। यही बात कीह गोंपा के बारे में भी कही जा सकती है जहां चार हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई पर बने मठ में साढ़े चार सौ लामाओं के रहने की व्यवस्था है। वहीं, कौमिक की तो दुर्गमता को देखते हुए बौद्धों के साक्य मत ने काजा में नया गोंपा ही बना डाला।

लेकिन ढंकर गोंपा जितना विलक्षण है, उतना ही उसके लिए संकट भी है। तीन सौ मीटर ऊंचे टीले पर बना हजार साल पुराना गोंपा, कैसे बना होगा और कैसे टिका है, सोचकर हैरानी होती है। विश्व स्मारक कोष ने इसे खतरे में पड़ी दुनिया की सौ जगहों में से एक माना है। इसीलिए दुनियाभर के बौद्ध मतावलंबी व इतिहास प्रेमी इसे बचाने की कोशिशों में लगे हैं। जिस तरह स्पीति के गोंपाओं के भीतर प्रतिमाएं मिट्टी की हैं, उसी तरह उनकी इमारतें भी मिट्टी की हैं। तिब्बत से नजदीकी बौद्ध धर्म को यहां लेकर आई, और मिट्टी का इस्तेमाल यहां की भौगोलिक संरचना की वजह से है। इस ठंडे रेगिस्तान में बारिश इतनी कम है कि सदियों से मिट्टी की बनी चीजें भी ठोस हो गई हैं। कुछ दशकों पहले तक लोग इनके बारे में जानते ही कितना थे। अब जानने लगे हैं तो देखने जाने भी लगे हैं, इसलिए भी इन्हें आने वाली पीढ़ियों के लिए बचाए रखना बहुत जरूरी हो गया है।

Thursday, May 3, 2012

काजा डायरी 1 - काम की तलाश में हिमालय की चोटियां भी नाप लेते हैं कदम

मोटरसाइकिल से तीन दिन में 785 किलोमीटर का सफर तय करके जब मैं लगभग 3700 मीटर की ऊंचाई पर स्थित किन्नौर जिले के नाको गांव पहुंचा तो बड़ा अजनबी सा महसूस कर रहा था। इसलिए नहीं कि मेरे लिए जगह नई थी, बल्कि इसलिए कि मैं वहां अकेला सैलानी था। नाको अपनी हजार साल पुरानी मोनेस्ट्री के लिए जाना जाता है। उत्तर भारत में पिछले बीस दिनों से बिगड़े मौसम ने जहां मैदानी इलाकों में गर्मी को थोड़ा लेट कर दिया, वहीं पहाड़ के इस हिस्से में ठंड को थोड़ा ज्यादा लंबा कर दिया। इसलिए इधर सैलानियों का आना अभी शुरू नहीं हुआ है। नीचे बारिश, ऊपर बर्फबारी और सांय-सांय करती हवा ने जीवन को मुश्किल में डाल रखा है। खास तौर पर प्रवासी कामगारों के लिए। अब यह सोचना मुश्किल है कि कोई सुदूर बिहार से यहां इतने विषम इलाके में रोजी-रोटी के लिए भला क्यों आएगा, लेकिन छपरा के ब्रजकिशोर शर्मा पिछले आठ साल से यहां गर्मियों के छह महीने में कारपेंटरी करने आते हैं। अप्रैल में पहुंचते हैं, जब मौसम बरदाश्त करने लायक हो जाता है और सितंबर-अक्टूबर में घर लौट जाते हैं। बमुश्किल डेढ़ सौ घरों के गांव में भला इतना क्या काम कारपेंटरी का होता होगा? ब्रजकिशोर कहते हैं कि कभी-कभी तो पूरा सीजन एक ही घर में निकल जाता है और उसमें भी काम पूरा नहीं होता। नए मकान, होटलों आदि में खूब काम है। यही कारण है कि दुष्कर इलाके और अलग संस्कृति में भी ब्रज जैसे कई और यहां हैं। प्रवासियों के लिए यहां काम भी कई तरह के हैं।


रिकांगपियो से अर्जुन हर साल गर्मियों में यहां आकर सैलानियों के लिए टेंट लगाते हैं। मौसम ने इस साल उन्हें भी कुछ दिन लेट कर दिया। मौसम से हमीरपुर के पचास से ज्यादा उम्र के राजकुमार भी खूब परेशान थे। इतनी ऊंचाई पर मैदानी इलाकों के लोगों को सांस लेने में वैसे ही थोड़ी मुश्किल हो जाती है, ऊपर से वह ठंड से बेहाल थे। कह रहे थे कि यही हाल रहा तो दो-तीन दिन में लौट जाऊंगा। वह अपने कुछ साथियों के साथ प्लंबर का काम करने के लिए हर साल यहां आते हैं। हर साल गर्मियों की शुरुआत में उन्हें गांव की सारी पाइपलाइनें जोड़नी होती हैं। सर्दियों में (अक्टूबर में) वे इन सारी पाइपलाइनों को खोलकर नीचे चले जाते हैं। पाइपलाइनें लगी रहें तो सर्दियों में पानी के जम जाने से फट जाएं। गर्मियों में इन प्रवासी प्लंबरों के यहां पहुंचने के बाद ही पाइपलाइनें जोड़ने का काम शुरू होता है। तभी घरों व होटलों में नलों में पानी आना शुरू होता है, तभी गीजर चलते हैं। नलों, लाइनों की मरम्मत, कनेक्शन वगैरह का काम इतना होता है कि राजकुमार जैसे कुछ प्लंबरों के छह महीने यहां गुजर जाते हैं।

लेकिन प्रवास की एक उलटी धारा भी है जो सर्दियों में बहती है। नीचे रामपुर के नजदीक दत्तनगर में 18 साल का देव मिला जो सड़क किनारे डिब्बों में मधुमक्खियां पालकर शहद इकट्ठा कर रहा था। कहता था कि उसका शहद डाबर कंपनी वाले ले जाते हैं। अभी यहां सेब व अन्य फूलों के खिलने के मौसम में मधुमक्खियां अच्छे से पल जाती हैं। जब यहां सर्दियां पड़ने लगेंगी तो देव या तो हरियाणा चला जाएगा जहां सूरजमुखी के खेतों के पास मधुमक्खियां पालेगा, या फिर राजस्थान चला जाएगा, जहां सरसों के पीले फूलों के साये में उसकी मधुमक्खियां पलेंगी। रोटी की जरूरत है, कोई वहां से यहां आता है तो कोई यहां से वहां। मुश्किलों से तो हर कोई लड़ता है।